So finally you are about to take the first step towards spiritual and material progress in your life.
Yes, this is a very serious matter. No one, in any way, can ever come to Vishnu Sahasranamam, surely you must have got lucky, only then you have come here.
From the topic of the article itself you must have known what is going to happen in this blog.
So without any delay let us start the description of the divine 1000 names of Lord Vishnu mentioned in Vishnu Sahasranamam.
(Video from M.S. Subbulakshmi)
Before that, let us know in a few words how it was created, when it was created, by whom it was created and where it was described.
The recitation of Vishnu Sahasranamam and its greatness is narrated by grandfather Shri Bhishma to Maharaja Yudhishthir after the war of Mahabharata.
This mention comes in the 149th chapter of Anushasanaparva of the epic Mahabharata.
The simple secret behind the 1000 names of Lord Vishnu in Vishnu Sahasranamam is that each name describes the qualities of Lord Shri Vishnu. Every name reflects the qualities of Vishnu.
In this chapter, the most profound secrets about Vishnu Sahasranamam have been revealed by Bhishma. Like who should do this lesson, when is it appropriate to do it, what benefits do we get from it, etc.
The Complete Vishnu Sahasranamam:
ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः ।
भूतकृद् भूतभूद् भावो भूतात्मा भूतभावनः ।। १४ ।।
ॐ – सच्चिदानन्दस्वरूप,
१ विश्वम् – विराट्स्वरूप,
२ विष्णुः सर्वव्यापी,
३ वषट्कारः– जिनके उद्देश्यसे यज्ञमें वषट् क्रिया की जाती है, ऐसे यज्ञस्वरूप,
४ भूतभव्यभवत्प्रभुः– भूत, भविष्यत् और वर्तमानके स्वामी,
५ भूतकृत् – रजोगुणको स्वीकार करके ब्रह्मारूपसे सम्पूर्ण भूतोंकी रचना करनेवाले,
६ भूतभृत् – सत्त्वगुणको स्वीकार करके सम्पूर्ण भूतोंका पालन-पोषण करनेवाले,
७ भावः– नित्यस्वरूप होते हुए भी स्वतः उत्पन्न होनेवाले,
८ भूतात्मा – सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा,
९ भूतभावनः– भूतोंकी उत्पत्ति और वृद्धि करनेवाले
पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमा गतिः ।
अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च ॥ १५ ॥
१० पूतात्मा-पवित्रात्मा,
११ परमात्मा – परमश्रेष्ठ नित्यशुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव,
१२ मुक्तानां परमा गतिः– मुक्त पुरुषोंकी सर्वश्रेष्ठ गतिस्वरूप,
१३ अव्ययः – कभी विनाशको प्राप्त न होनेवाले,
१४ पुरुषः– पुर अर्थात शरीरमें शयन करनेवाले,
१५ साक्षी – बिना किसी व्यवधानके सब कुछ देखनेवाले,
१६ क्षेत्रज्ञः – क्षेत्र अर्थात् समस्त प्रकृतिरूप शरीरको पूर्णतया जाननेवाले,
१७ अक्षरः – कभी क्षीण न होनेवाले
योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः ।
नारसिंहवपुः श्रीमान् केशवः पुरुषोत्तमः ॥ १६ ॥
१८ योगः – मनसहित सम्पूर्ण ज्ञानेन्द्रियोंके निरोधरूप योगसे प्राप्त होनेवाले,
१९ योगविदां नेता-योगको जाननेवाले भक्तोंके स्वामी
२० प्रधानपुरुषेश्वरः– प्रकृति और पुरुषके स्वामी,
२१ नारसिंहवपुः मनुष्य और सिंह दोनोंके – जैसा शरीर धारण करनेवाले नरसिंहरूप,
२२ श्रीमान् – वक्षःस्थलमें सदा श्रीको धारण करनेवाले,
२३ केशवः – (क) ब्रह्मा, (अ) विष्णु और (ईश) महादेव – इस प्रकार त्रिमूर्तिस्वरूप,
२४ पुरुषोत्तमः-क्षर और अक्षर – इन दोनोंसे सर्वथा उत्तम
सर्वः शर्वः शिवः स्थाणुर्भूतादिर्निधिरव्ययः ।
सम्भवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभुरीश्वरः ।। १७ ।।
२५ सर्वः सर्वरूप,
२६ शर्वः – सारी प्रजाका प्रलयकालमें संहार करनेवाले,
२७ शिव:- तीनों गुणोंसे परे कल्याणस्वरूप,
२८ स्थाणुः-स्थिर,
२९ भूतादिः – भूतोंके आदिकारण,
३० निधिरव्ययः-प्रलयकालमें सब प्राणियोंके लीन होनेके लिये अविनाशी स्थानरूप,
३१ सम्भवः-अपनी इच्छासे भली प्रकार प्रकट होनेवाले,
३२ भावनः– समस्त भोक्ताओंके फलोंको उत्पन्न करनेवाले,
३३ भर्ता – सबका भरण करनेवाले,
३४ प्रभवः – उत्कृष्ट (दिव्य ) जन्मवाले,
३५ प्रभुः-सबके स्वामी,
३६ ईश्वरः– उपाधिरहित ऐश्वर्यवाले
स्वयम्भूः शम्भुरादित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः ।
अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ।। १८ ।।
३७ स्वयम्भूः-स्वयं उत्पन्न होनेवाले,
३८ शम्भुः भक्तोंके लिये सुख उत्पन्न करनेवाले,
३९ आदित्यः-द्वादश आदित्योंमें विष्णुनामक आदित्य,
४० पुष्कराक्षः-कमलके समान नेत्रवाले,
४१ महास्वनः – वेदरूप अत्यन्त महान् घोषवाले,
४२ अनादिनिधनः– जन्म-मृत्युसे रहित,
४३ धाता – विश्वको धारण करनेवाले,
४४ विधाता – कर्म और उसके फलोंकी रचना करनेवाले,
४५ धातुरुत्तमः – कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण प्रपंचको धारण करनेवाले एवं सर्वश्रेष्ठ
अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः ।
विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ।। १९ ।।
४६ अप्रमेयः-प्रमाणादिसे जाननेमें न आ सकनेवाले,
४७ हृषीकेशः – इन्द्रियोंके स्वामी,
४८ पद्मनाभः-जगत्के कारणरूप कमलको अपनी नाभिमें स्थान देनेवाले,
४९ अमरप्रभुः-देवताओंके स्वामी,
५० विश्वकर्मा – सारे जगत्की रचना करनेवाले,
५१ मनुः– प्रजापति मनुरूप,
५२ त्वष्टा – संहारके समय सम्पूर्ण प्राणियोंको क्षीण करनेवाले,
५३ स्थविष्ठः-अत्यन्त स्थूल,
५४ स्थविरो ध्रुवः – अति प्राचीन एवं अत्यन्त स्थिर
अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः ।
प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मङ्गलं परम् ।। २० ।।
५५ अग्राह्यः– मनसे भी ग्रहण न किये जा सकनेवाले,
५६ शाश्वतः सब कालमें स्थित रहनेवाले,
५७ कृष्णः – सबके चित्तको बलात् अपनी ओर आकर्षित करनेवाले परमानन्दस्वरूप,
५८ लोहिताक्षः – लाल नेत्रोंवाले,
५९ प्रतर्दनः प्रलयकालमें प्राणियोंका संहार करनेवाले,
६० प्रभूतः – ज्ञान, ऐश्वर्य आदि गुणोंसे सम्पन्न,
६१ त्रिककुब्धाम – ऊपर- नीचे और मध्यभेदवाली तीनों दिशाओंके आश्रयरूप
६२ पवित्रम् – सबको पवित्र करनेवाले,
६३ मङ्गलं – परम्-परम मंगलस्वरूप
ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः ।
हिरण्यगर्भो भूगर्भो माधवो मधुसूदनः ।। २१ ।।
६४ ईशानः सर्वभूतोंके नियन्ता,
६५ प्राणदः – सबके प्राणदाता,
६६ प्राण:- प्राणस्वरूप,
६७ ज्येष्ठः– सबके कारण होनेसे सबसे बड़े,
६८ श्रेष्ठ: – सबमें उत्कृष्ट होनेसे परम श्रेष्ठ,
६९ प्रजापतिः – ईश्वररूपसे सारी प्रजाओंके स्वामी,
७० हिरण्यगर्भः- ब्रह्माण्डरूप हिरण्यमय अण्डके भीतर ब्रह्मारूपसे व्याप्त होनेवाले,
७१ भूगर्भः – पृथ्वीको गर्भमें रखनेवाले,
७२ माधवः -लक्ष्मीके पति,
७३ मधुसूदनः- मधुनामक दैत्यको मारनेवाले
ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः ।
अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृतिरात्मवान् ।। २२ ॥
७४ ईश्वरः-सर्वशक्तिमान् ईश्वर,
७५ विक्रमी – शूरवीरतासे युक्त,
७६ धन्वी- शार्ङ्गधनुष रखनेवाले,
७७ मेधावी- अतिशय बुद्धिमान्,
७८ विक्रमः गरुड़ पक्षीद्वारा गमन करनेवाले,
७९ क्रमः – क्रमविस्तारके कारण,
८० अनुत्तमः – सर्वोत्कृष्ट
८१ दुराधर्षः- किसीसे भी तिरस्कृत न हो सकनेवाले,
८२ कृतज्ञः – अपने निमित्तसे थोड़ा-सा भी त्याग किये जानेपर उसे बहुत माननेवाले यानि पत्र – पुष्पादि थोड़ी-सी वस्तु समर्पण करनेवालोंको भी मोक्ष दे देनेवाले,
८३ कृतिः- पुरुष-प्रयत्नके आधाररूप,
८४ आत्मवान्- अपनी ही महिमामें स्थित
सुरेशः शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः ।
अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः ।। २३ ।।
८५ सुरेशः-देवताओंके स्वामी,
८६ शरणम् – दीन-दुखियोंके परम आश्रय,
८७ शर्म- परमानन्दस्वरूप,
८८ विश्वरेताः – विश्वके कारण,
८९ प्रजाभवः – सारी प्रजाको उत्पन्न करनेवाले,
९० अहः – प्रकाशरूप,
९१ संवत्सरः-कालरूपसे स्थित,
९२ व्यालः- शेषनागस्वरूप,
९३ प्रत्ययः – उत्तम बुद्धिसे जाननेमें आनेवाले,
९४ सर्वदर्शनः – सबके द्रष्टा
अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादिरच्युतः ।
वृषाकपिरमेयात्मा सर्वयोगविनिःसृतः ।। २४ ।
९५ अजः-जन्मरहित,
९६ सर्वेश्वरः-समस्त ईश्वरोंके भी ईश्वर,
९७ सिद्धः-नित्यसिद्ध,
९८ सिद्धिः-सबके फलस्वरूप,
९९ सर्वादिः – सब भूतोंके आदि कारण,
१०० अच्युतः– अपनी स्वरूप-स्थितिसे कभी त्रिकालमें भी च्युत न होनेवाले,
१०१ वृषाकपिः-धर्म और वराहरूप,
१०२ अमेयात्मा – अप्रमेयस्वरूप,
१०३ सर्वयोगविनिःसृतः-नाना प्रकारके शास्त्रोक्त साधनोंसे जाननेमें आनेवाले
वसुर्वसुमनाः सत्यः समात्मासम्मितः समः |
अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ॥ २५ ॥
१०४ वसुः-सब भूतोंके वासस्थान,
१०५ वसुमनाः– उदार मनवाले,
१०६ सत्यः- सत्यस्वरूप,
१०७ समात्मा – सम्पूर्ण प्राणियोंमें एक आत्मारूपसे विराजनेवाले,
१०८ असम्मितः-समस्त पदार्थोंसे मापे न जा सकनेवाले,
१०९ समः-सब समय समस्त विकारोंसे रहित,
११० अमोघः – भक्तोंके द्वारा पूजन, स्तवन अथवा स्मरण किये जानेपर उन्हें वृथा न करके पूर्णरूपसे उनका फल प्रदान करनेवाले,
१११ पुण्डरीकाक्षः-कमलके समान नेत्रोंवाले,
११२ वृषकर्मा-धर्ममय कर्म करनेवाले,
११३ वृषाकृतिः-धर्मकी स्थापना करनेके लिये विग्रह धारण करनेवाले
रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनिः शुचिश्रवाः ।
अमृतः शाश्वतस्थाणुर्वसरोहो महातपाः ।। २६ ।
११४ रुद्रः-दुःखके कारणको दूर भगा देनेवाले,
११५ बहुशिराः – बहुत से सिरोंवाले,
११६ बभ्रुः-लोकोंका भरण करनेवाले,
११७ विश्वयोनिः – विश्वको उत्पन्न करनेवाले,
११८ शुचिश्रवाः-पवित्र कीर्तिवाले,
११९ अमृतः – कभी न मरनेवाले,
१२० शाश्वतस्थाणुः– नित्य सदा एकरस रहनेवाले एवं स्थिर,
१२१ वरारोहः– आरूढ़ होनेके लिये परम उत्तम अपुनरावृत्तिस्थानरूप,
१२२ महातपाः – प्रताप ( प्रभाव) रूप महान् तपवाले
सर्वगः सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः ।
वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित् कविः ।। २७ ।।
१२३ सर्वगः-कारणरूपसे सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले,
१२४ सर्वविद्भानुः-सब कुछ जाननेवाले प्रकाशरूप,
१२५ विष्वक्सेनः – युद्धके लिये की हुई तैयारीमात्रसे ही दैत्यसेनाको तितर-बितर कर डालनेवाले,
१२६ जनार्दनः– भक्तोंके द्वारा अभ्युदयनिःश्रेयसरूप परम पुरुषार्थकी याचना किये जानेवाले,
१२७ वेदः – वेदरूप,
१२८ वेदवित्-वेद तथा वेदके अर्थको यथावत् जाननेवाले,
१२९ अव्यङ्गः – ज्ञानादिसे परिपूर्ण अर्थात् किसी प्रकार अधूरे न रहनेवाले सर्वांगपूर्ण,
१३० वेदाङ्गः-वेदरूप अंगोंवाले,
१३१ वेदवित्-वेदोंको विचारनेवाले,
१३२ कविः-सर्वज्ञ
लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृताकृतः ।
चतुरात्मा चतुर्व्यूहश्चतुर्दंष्ट्रश्चतुर्भुजः ।। २८ ।।
१३३ लोकाध्यक्षः-समस्त लोकोंके अधिपति,
१३४ सुराध्यक्षः – देवताओंके अध्यक्ष,
१३५ धर्माध्यक्षः-अनुरूप फल देनेके लिये धर्म और अधर्मका निर्णय करनेवाले,
१३६ कृताकृतः-कार्यरूपसे कृत और कारणरूपसे अकृत,
१३७ चतुरात्मा – ब्रह्मा, विष्णु, महेश और निराकार ब्रह्म—इन चार स्वरूपोंवाले,
१३८ चतुर्व्यूहः– उत्पत्ति, स्थिति, नाश और रक्षारूप चार व्यूहवाले,
१३९ चतुर्दंष्ट्रः – चार दाढ़ोंवाले नरसिंहरूप,
१४० चतुर्भुजः- चार भुजाओंवाले, वैकुण्ठवासी भगवान् विष्णु
भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता सहिष्णुर्जगदादिजः ।
अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः ।। २९ ।।
१४१ भ्राजिष्णुः– एकरस प्रकाशस्वरूप,
१४२ भोजनम् – ज्ञानियोंद्वारा भोगनेयोग्य अमृतस्वरूप,
१४३ भोक्ता – पुरुषरूपसे भोक्ता,
१४४ सहिष्णुः – सहनशील,
१४५ जगदादिजः-जगत्के आदिमें हिरण्यगर्भ रूपसे स्वयं उत्पन्न होनेवाले,
१४६ अनघः– पापरहित,
१४७ विजयः– ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य आदि गुणोंमें सबसे बढ़कर,
१४८ जेता– स्वभावसे ही समस्त भूतोंको जीतनेवाले,
१४९ विश्वयोनिः – सबके कारणरूप,
१५० पुनर्वसुः-पुनः-पुनः अवतार – शरीरोंमें निवास करनेवाले
उपेन्द्रो वामनः प्रांशुरमोघः शुचिरूर्जितः ।
अतीन्द्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः ।। ३० ।।
१५१ उपेन्द्रः-इन्द्रके छोटे भाई,
१५२ वामनः– वामनरूपसे अवतार लेनेवाले,
१५३ प्रांसुः-तीनों लोकोंको लाँघनेके लिये त्रिविक्रमरूपसे ऊँचे होनेवाले,
१५४ अमोघः-अव्यर्थ चेष्टावाले,
१५५ शुचिः-स्मरण, स्तुति और पूजन करनेवालोंको पवित्र कर देनेवाले,
१५६ ऊर्जितः-अ :- अत्यन्त बलशाली,
१५७ अतीन्द्रः – स्वयंसिद्ध ज्ञान-ऐश्वर्यादिके कारण इन्द्रसे भी बढ़े-चढ़े हुए,
१५८ संग्रहः– प्रलयके समय सबको समेट लेनेवाले,
१५९ सर्गः – सृष्टिके कारणरूप,
१६० धृतात्मा– जन्मादिसे रहित रहकर स्वेच्छासे स्वरूप धारण करनेवाले,
१६१ नियमः प्रजाको अपने-अपने अधिकारोंमें नियमित करनेवाले,
१६२ यमः– अन्तःकरणमें स्थित होकर नियमन करनेवाले
वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः ।
अतीन्द्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः ।। ३१ ।।
१६३ वेद्यः-कल्याणकी इच्छावालोंके द्वारा जानने योग्य,
१६४ वैद्यः– सब विद्याओंके जाननेवाले,
१६५ सदायोगी-सदा योगमें स्थित रहनेवाले,
१६६ वीरहा -धर्मकी रक्षाके लिये असुर योद्धाओंको मार डालनेवाले,
१६७ माधवः – विद्याके स्वामी,
१६८ मधुः- अमृतकी तरह सबको प्रसन्न करनेवाले,
१६९ अतीन्द्रियः-इन्द्रियोंसे सर्वथा अतीत,
१७० महामायः- मायावियोंपर भी माया डालनेवाले, महान् मायावी,
१७१ महोत्साहः-जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके लिये तत्पर रहनेवाले परम उत्साही,
१७२ महाबलः – महान् बलशाली
महाबुद्धिर्महावीर्यो महाशक्तिर्महाद्युतिः ।
अनिर्देश्यवपुः श्रीमानमेयात्मा महाद्रिधृक् ।। ३२ ॥
१७३ महाबुद्धिः -महान् बुद्धिमान्
१७४ महावीर्यः – महान् पराक्रमी,
१७५ महाशक्तिः-महान् सामर्थ्यवान्,
१७६ महाद्युतिः– महान् कान्तिमान्
१७७ अनिर्देश्यवपुः- वर्णन करनेमें न आने योग्य स्वरूप,
१७८ श्रीमान् – ऐश्वर्यवान्,
१७९ अमेयात्मा- जिसका अनुमान न किया जा सके ऐसे आत्मावाले,
१८० महाद्रिधृक्- अमृतमन्थन और गोरक्षणके समय मन्दराचल और गोवर्धन नामक महान् पर्वतोंको धारण करनेवाले
महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः ।
अनिरुद्धः सुरानन्दो गोविन्दो गोविदां पतिः ।। ३३ ॥
१८१ महेष्वासः-महान् धनुषवाले,
१८२ महीभर्ता – पृथ्वीको धारण करनेवाले,
१८३ श्रीनिवासः-अपने वक्षःस्थलमें श्रीको निवास देनेवाले,
१८४ सतां गतिः-सत्पुरुषोंके परम आश्रय,
१८५ अनिरुद्धः – किसीके भी द्वारा न रुकनेवाले,
१८६ सुरानन्दः-देवताओंको आनन्दित करनेवाले,
१८७ गोविन्दः – वेदवाणीके द्वारा अपनेको प्राप्त करा देनेवाले,
१८८ गोविदां पतिः-वेदवाणीको जाननेवालोंके स्वामी
मरीचिर्दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः ।
हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः ।। ३४ ।।
१८९ मरीचिः-तेजस्वियोंके भी परम तेजरूप,
१९० दमनः -प्रमाद करनेवाली प्रजाको यम आदिके रूपसे दमन करनेवाले,
१९१ हंसः – पितामह ब्रह्माको वेदका ज्ञान करानेके लिये हंसरूप धारण करनेवाले,
१९२ सुपर्णः – सुन्दर पंखवाले गरुड़स्वरूप,
१९३ भुजगोत्तमः – सर्पोंमें श्रेष्ठ शेषनागरूप,
१९४ हिरण्यनाभः -सुवर्णके समान रमणीय नाभिवाले,
१९५ सुतपाः – बदरिकाश्रममें नर-नारायणरूपसे सुन्दर तप करनेवाले,
१९६ पद्मनाभः-कमलके समान सुन्दर नाभिवाले,
१९७ प्रजापतिः – सम्पूर्ण प्रजाओंके पालनकर्ता
अमृत्युः सर्वदृक् सिंहः संधाता सन्धिमान्स्थिरः ।
अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा ।। ३५ ।।
१९८ अमृत्युः-मृत्युसे रहित,
१९९ सर्वदृक्– सब कुछ देखनेवाले,
२०० सिंहः– दुष्टोंका विनाश करनेवाले,
२०१ संधाता – प्राणियोंको उनके कर्मोंके फलोंसे संयुक्त करनेवाले,
२०२ सन्धिमान्-सम्पूर्ण यज्ञ और तपोंके फलोंको भोगनेवाले,
२०३ स्थिरः-सदा एक रूप,
२०४ अज:- :- दुर्गुणोंको दूर हटा देनेवाले,
२०५ दुर्मर्षणः– किसीसे भी सहन नहीं किये जा सकनेवाले,
२०६ शास्ता – सबपर शासन करनेवाले,
२०७ विश्रुतात्मा-वेदशास्त्रोंमें प्रसिद्ध स्वरूपवाले,
२०८ सुरारिहा – देवताओंके शत्रुओंको मारनेवाले
गुरुर्गुरुतमो धाम सत्यः सत्यपराक्रमः ।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वी वाचस्पतिरुदारधीः ।। ३६ ।।
२०९ गुरुः-सब विद्याओंका उपदेश करनेवाले,
२१० गुरुतमः – ब्रह्मा आदिको भी ब्रह्मविद्या प्रदान करनेवाले,
२११ धाम – सम्पूर्ण जगत्के आश्रय,
२१२ सत्यः-सत्यस्वरूप,
२१३ सत्यपराक्रमः-अमोघ पराक्रमवाले,
२१४ निमिषः – योगनिद्रासे मुँदे हुए नेत्रोंवाले,
२१५ अनिमिषः-मत्स्यरूपसे अवतार लेनेवाले,
२१६ स्रग्वी – वैजयन्तीमाला धारण करनेवाले,
२१७ वाचस्पतिरुदारधीः– सारे पदार्थोंको प्रत्यक्ष करनेवाली बुद्धिसे युक्त समस्त विद्याओंके पति
अग्रणीर्ग्रामणीः श्रीमान् न्यायो नेता समीरणः ।
सहस्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात् ।। ३७ ।।
२१८ अग्रणीः – ४ मुमुक्षुओंको उत्तम पदपर ले जानेवाले,
२१९ ग्रामणीः– भूतसमुदायके नेता,
२२० श्रीमान् – सबसे बढ़ी चढ़ी कान्तिवाले,
२२१ न्यायः-प्रमाणोंके आश्रयभूत तर्ककी मूर्ति,
२२२ नेता – जगत्-रूप यन्त्रको चलानेवाले,
२२३ समीरणः– श्वासरूपसे प्राणियोंसे चेष्टा करानेवाले,
२२४ सहस्रमूर्धा – हजार सिरवाले,
२२५ विश्वात्मा– विश्वके आत्मा,
२२६ सहस्राक्षः-हजार आँखोंवाले,
२२७ सहस्रपात्-हजार पैरोंवाले
आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः सम्प्रमर्दनः ।
अहःसंवर्तको वह्निरनिलो धरणीधरः ।। ३८ ॥
२२८ आवर्तनः-संसारचक्रको चलानेके स्वभाववाले,
२२९ निवृत्तात्मा-संसारबन्धनसे नित्य मुक्तस्वरूप,
२३० संवृतः – अपनी योगमायासे ढके हुए,
२३१ सम्प्रमर्दनः-अपने रुद्र आदि स्वरूपसे सबका मर्दन करनेवाले,
२३२ अहः संवर्तकः-सूर्यरूपसे सम्यक्तया दिनके प्रवर्तक,
२३३ वह्निः – हविको वहन करनेवाले अग्निदेव,
२३४ अनिलः-प्राणरूपसे वायुस्वरूप,
२३५ धरणीधरः– वराह और शेषरूपसे पृथ्वीको धारण करनेवाले
सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृग् विश्वभुग् विभुः ।
सत्कर्ता सत्कृतः साधुर्जह्नुर्नारायणो नरः ।। ३९ ॥
२३६ सुप्रसादः-शिशुपालादि अपराधियोंपर भी कृपा करनेवाले,
२३७ प्रसन्नात्मा– प्रसन्न स्वभाववाले,
२३८ विश्वधृक्-जगत्को धारण करनेवाले,
२३९ विश्वभुक्-विश्वका पालन करनेवाले,
२४० विश्वः सर्वव्यापी,
२४१ सत्कर्ता-भक्तोंका सत्कार करनेवाले,
२४२ सत्कृतः-पूजितोंसे भी पूजित,
२४३ साधुः – भक्तोंके कार्य साधनेवाले,
२४४ जह्नुः-संहारके समय जीवोंका लय करनेवाले,
२४५ नारायणः – जलमें शयन करनेवाले,
२४६ नरः– भक्तोंको परमधाममें ले जानेवाले
असंख्येयोऽप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्टकृच्छुचिः ।
सिद्धार्थः सिद्धसंकल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः ।। ४० ।।
२४७ असंख्येयः-जिसके नाम और गुणोंकी संख्या न की जा सके,
२४८ अप्रमेयात्मा-किसीसे भी मापे न जा सकनेवाले,
२४९ विशिष्टः – सबसे उत्कृष्ट,
२५० शिष्टकृत्-श्रेष्ठ बनानेवाले,
२५१ शुचिः – प :- परम शुद्ध,
२५२ सिद्धार्थः इच्छित अर्थको सर्वथा सिद्ध कर चुकनेवाले,
२५३ सिद्धसंकल्पः– सत्य संकल्पवाले,
२५४ सिद्धिदः-कर्म करनेवालोंको उनके अधिकारके अनुसार फल देनेवाले,
२५५ सिद्धिसाधनः– सिद्धिरूप क्रियाके साधक
वृषाही वृषभो विष्णुर्वृषपर्वा वृषोदरः ।
वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः ।। ४१ ॥
२५६ वृषाही– द्वादशाहादि यज्ञोंको अपनेमें स्थित रखनेवाले,
२५७ वृषभः-भक्तोंके लिये इच्छित वस्तुओंकी वर्षा करनेवाले,
२५८ विष्णुः – शुद्ध सत्त्वमूर्ति,
२५९ वृषपर्वा – परमधाममें आरूढ़ होनेकी इच्छावालोंके लिये धर्मरूप सीढ़ियोंवाले,
२६० वृषोदरः-अपने उदरमें धर्मको धारण करनेवाले,
२६१ वर्धनः– भक्तोंको बढ़ानेवाले,
२६२ वर्धमानः– संसाररूपसे बढ़नेवाले,
२६३ विविक्तः – संसारसे पृथक् रहनेवाले,
२६४ श्रुतिसागरः– वेदरूप जलके समुद्र
सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेन्द्रो वसुदो वसुः ।
नैकरूपो बृहद्रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः ।। ४२ ।।
२६५ सुभुजः जगत्की रक्षा करनेवाली अति सुन्दर भुजाओंवाले,
२६६ दुर्धरः– ध्यानद्वारा कठिनतासे धारण किये जा सकनेवाले,
२६७ वाग्मी – वेदमयी वाणीको उत्पन्न करनेवाले,
२६८ महेन्द्रः – ईश्वरोंके भी ईश्वर,
२६९ वसुदः धन देनेवाले,
२७० वसुः-धनरूप,
२७१ नैकरूपः-अनेक रूपधारी,
२७२ बृहद्रूपः – विश्वरूपधारी,
२७३ शिपिविष्ट:- सूर्यकिरणोंमें स्थित रहनेवाले,
२७४ प्रकाशन:- सबको प्रकाशित करनेवाले
ओजस्तेजोद्युतिधरः प्रकाशात्मा प्रतापनः ।
ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मन्त्रश्चन्द्रांशुर्भास्करद्युतिः ॥ ४३ ॥
२७५ ओजस्तेजोद्युतिधरः – प्राण और बल, शूरवीरता आदि गुण तथा ज्ञानकी दीप्तिको धारण करनेवाले,
२७६ प्रकाशात्मा- प्रकाशरूप,
२७७ प्रतापनः – सूर्य आदि अपनी विभूतियोंसे विश्वको तप्त करनेवाले,
२७८ ऋद्धः – धर्म, ज्ञान और वैराग्यादिसे सम्पन्न,
२७९ स्पष्टाक्षरः-ओंकाररूप स्पष्ट अक्षरवाले,
२८० मन्त्रः ऋक्, साम और यजुके मन्त्रस्वरूप,
२८१ चन्द्रांशुः – संसारतापसे संतप्तचित्त पुरुषोंको चन्द्रमाकी किरणोंके समान आह्लादित करनेवाले,
२८२ भास्करद्युतिः – सूर्यके समान प्रकाशस्वरूप
अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिन्दुः सुरेश्वरः ।
औषधं जगतः सेतुः सत्यधर्मपराक्रमः ।। ४४ ।
२८३ अमृतांशूद्भवः-समुद्रमन्थन करते समय चन्द्रमाको उत्पन्न करनेवाले,
२८४ भानुः-भासनेवाले,
२८५ शशबिन्दुः- खरगोशके समान चिह्नवाले चन्द्रस्वरूप,
२८६ सुरेश्वरः-देवताओंके ईश्वर,
२८७ औषधम् – संसाररोगको मिटानेके लिये औषधरूप,
२८८ जगतः सेतुः-संसार-सागरको पार करानेके लिये सेतुरूप,
२८९ सत्यधर्मपराक्रमः- सत्यस्वरूप धर्म और पराक्रमवाले
भूतभव्यभवन्नाथः पवनः पावनोऽनलः ।
कामहा कामकृत् कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः ।। ४५ ।।
२९० भूतभव्यभवन्नाथः भूत, भविष्य और वर्तमानके स्वामी,
२९१ पवनः– वायुरूप,
२९२ पावनः-जगत्को पवित्र करनेवाले,
२९३ अनलः– अग्निस्वरूप,
२९४ कामहा-अपने भक्तजनोंके सकामभावको नष्ट करनेवाले,
२९५ कामकृत्-भक्तोंकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले,
२९६ कान्तः– कमनीयरूप, २९७ कामः – (क) ब्रह्मा, (अ) विष्णु, (म) महादेव- इस प्रकार त्रिदेवरूप,
२९८ कामप्रदः – भक्तोंको उनकी कामना की हुई वस्तुएँ प्रदान करनेवाले,
२९९ प्रभुः-सर्वसामर्थ्यवान्
युगादिकृद् युगावर्तो नैकमायो महाशनः ।
अदृश्योऽव्यक्तरूपश्च सहस्रजिदनन्तजित् ।। ४६ ।।
३०० युगादिकृत्-युगादिका आरम्भ करनेवाले,
३०१ युगावर्तः- चारों युगोंको चक्रके समान घुमानेवाले,
३०२ नैकमायः अनेक मायाओंको धारण करनेवाले,
३०३ महाशनः- कल्पके अन्तमें सबको ग्रसन करनेवाले,
३०४ अदृश्यः- समस्त ज्ञानेन्द्रियोंके अविषय,
३०५ अव्यक्तरूपः-निराकार स्वरूपवाले,
३०६ सहस्रजित् – युद्धमें हजारों देवशत्रुओं को जीतनेवाले,
३०७ अनन्तजित्-युद्ध और क्रीड़ा आदिमें सर्वत्र समस्त भूतोंको जीतनेवाले
इष्टोऽविशिष्टः शिष्टेष्टः शिखण्डी नहुषो वृषः ।
क्रोधहा क्रोधकृत्कर्ता विश्वबाहुर्महीधरः ।। ४७ ।।
३०८ इष्टः-परमानन्दरूप होनेसे सर्वप्रिय,
३०९ अविशिष्टः सम्पूर्ण विशेषणोंसे रहित,
३१० शिष्टेष्टः-शिष्ट पुरुषोंके इष्टदेव,
३११ शिखण्डी – मयूरपिच्छको अपना शिरोभूषण बना लेनेवाले,
३१२ नहुषः-भूतोंको मायासे बाँधनेवाले,
३१३ वृषः-कामनाओंको पूर्ण करनेवाले धर्मस्वरूप,
३१४ क्रोधहा क्रोधका नाश करनेवाले,
३१५ क्रोधकृत्कर्त्ता – क्रोध करनेवाले दैत्यादिके विनाशक,
३१६ विश्वबाहुः – सब ओर बाहुओंवाले,
३१७ महीधरः – पृथ्वी को धारण करनेवाले
अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः ।
अपां निधिरधिष्ठानमप्रमत्तः प्रतिष्ठितः ।। ४८ ।।
३१८ अच्युतः-छः भावविकारोंसे रहित,
३१९ प्रथितः जगत्की उत्पत्ति आदि कर्मों के कारण विख्यात,
३२० प्राणः– हिरण्यगर्भरूपसे प्रजाको जीवित रखनेवाले,
३२१ प्राणदः– सबका भरण-पोषण करनेवाले,
३२२ वासवानुजः – वामनावतारमें इन्द्रके अनुजरूपमें उत्पन्न होनेवाले,
३२३ अपां निधिः जलको एकत्र रखनेवाले समुद्ररूप,
३२४ अधिष्ठानम्– उपादान कारणरूपसे सब भूतोंके आश्रय,
३२५ अप्रमत्तः-कभी प्रमाद न करनेवाले,
३२६ प्रतिष्ठितः-अपनी महिमामें स्थित
स्कन्दः स्कन्दधरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः ।
वासुदेवो बृहद्भानुरादिदेवः पुरंदरः ।। ४९ ।।
३२७ स्कन्दः-स्वामिकार्तिकेयरूप,
३२८ स्कन्दधरः– धर्मपथको धारण करनेवाले,
३२९ धुर्यः-समस्त भूतोंके जन्मादिरूप धुरको धारण करनेवाले,
३३० वरदः-इच्छित वर देनेवाले,
३३१ वायुवाहनः – सारे वायुभेदोंको चलानेवाले,
३३२ वासुदेवः– सब भूतोंमें सर्वात्मारूपसे बसनेवाले,
३३३ बृहद्भानुः महान् किरणोंसे युक्त एवं सम्पूर्ण जगत्को प्रकाशित करनेवाले सूर्यरूप,
३३४ आदिदेवः सबके आदिकारण देव,
३३५ पुरंदरः- असुरोंके नगरोंका ध्वंस करनेवाले
अशोकस्तारणस्तारः शूरः शौरिर्जनेश्वरः ।
अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः ।। ५० ।।
३३६ अशोकः-सब प्रकारके शोकसे रहित,
३३७ तारणः – संसारसागरसे तारनेवाले,
३३८ तारः-जन्म-जरा मृत्युरूप भयसे तारनेवाले,
३३९ शूरः– पराक्रमी,
३४० शौरिः– शूरवीर श्रीवसुदेवजीके पुत्र,
३४१ जनेश्वरः– समस्त जीवोंके स्वामी,
३४२ अनुकूलः– आत्मारूप होनेसे सबके अनुकूल,
३४३ शतावर्तः– धर्मरक्षाके लिये सैकड़ों अवतार लेनेवाले,
३४४ पद्मी अपने हाथमें कमल धारण करनेवाले,
३४५ पद्मनिभेक्षणः – कमलके समान कोमल दृष्टिवाले
पद्मनाभोऽरविन्दाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत् ।
महर्द्धिरृद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुडध्वजः ।। ५१ ।।
३४६ पद्मनाभः-हृदय-कमलके मध्य निवास करनेवाले,
३४७ अरविन्दाक्षः – कमलके समान आँखोंवाले,
३४८ पद्मगर्भः– हृदयकमलमें ध्यान करनेयोग्य,
३४९ शरीरभृत्– अन्नरूपसे सबके शरीरोंका भरण करनेवाले,
३५० महर्द्धिः महान् विभूतिवाले,
३५१ ऋद्धः-सबमें बढ़े-चढ़े,
३५२ वृद्धात्मा – पुरातन स्वरूप,
३५३ महाक्षः-विशाल नेत्रोंवाले,
३५४ गरुडध्वजः-गरुडके चिह्नसे युक्त ध्वजावाले
अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः ।
सर्वलक्षणलक्षण्यो लक्ष्मीवान् समितिञ्जयः ।। ५२ ।।
३५५ अतुलः-तुलनारहित,
३५६ शरभः-शरीरोंको प्रत्यगात्मरूपसे प्रकाशित करनेवाले,
३५७ भीमः – जिससे पापियोंको भय हो ऐसे भयानक,
३५८ समयज्ञः– समभावरूप यज्ञसे सम्पन्न,
३५९ हविर्हरिः– यज्ञोंमें हविर्भागको और अपना स्मरण करनेवालोंके पापोंको हरण करनेवाले,
३६० सर्वलक्षणलक्षण्यः – :- समस्त लक्षणोंसे लक्षित होनेवाले,
३६१ लक्ष्मीवान्– अपने वक्षःस्थलमें लक्ष्मीजीको सदा बसानेवाले,
३६२ समितिञ्जयः संग्रामविजयी
विक्षरो रोहितो मार्गो हेतुर्दामोदरः सहः ।
महीधरो महाभागो वेगवानमिताशनः ।। ५३ ।।
३६३ विक्षरः-नाशरहित,
३६४ रोहितः – मत्स्यविशेषका स्वरूप धारण करके अवतार लेनेवाले,
३६५ मार्गः-परमानन्दप्राप्तिके साधन-स्वरूप,
३६६ हेतुः संसारके निमित्त और उपादान कारण,
३६७ दामोदरः- यशोदाजीद्वारा रस्सीसे बँधे हुए उदरवाले,
३६८ सहः- भक्तजनोंके अपराधोंको सहन करनेवाले,
३६९ महीधरः- पृथ्वीको धारण करनेवाले,
३७० महाभागः-महान् भाग्यशाली,
३७१ वेगवान्- तीव्रगतिवाले,
३७२ अमिताशनः– प्रलयकालमें सारे विश्वको भक्षण करनेवाले
उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः ।
करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गृहः ।। ५४ ॥
३७३ उद्भवः-जगत्की उत्पत्तिके उपादानकारण,
३७४ क्षोभणः – जगत्की उत्पत्तिके समय प्रकृति और पुरुषमें प्रविष्ट होकर उन्हें क्षुब्ध करनेवाले,
३७५ देवः-प्रकाशस्वरूप,
३७६ श्रीगर्भः-सम्पूर्ण ऐश्वर्यको अपने उदरमें रखनेवाले,
३७७ परमेश्वरः-सर्वश्रेष्ठ शासन करनेवाले,
३७८ करणम् – संसारकी उत्पत्तिके सबसे बड़े साधन,
३७९ कारणम्-जगत्के उपादान और निमित्तकारण,
३८० कर्ता-सबके रचयिता,
३८१ विकर्ता – विचित्र भुवनोंकी रचना करनेवाले,
३८२ गहनः – अपने विलक्षण स्वरूप, सामर्थ्य और लीलादिके कारण पहचाने न जा सकनेवाले,
३८३ गुहः– मायासे अपने स्वरूपको ढक लेनेवाले
व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो ध्रुवः ।
परर्द्धिः परमस्पष्टस्तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः ।। ५५ ।।
३८४ व्यवसायः-ज्ञानस्वरूप,
३८५ व्यवस्थानः-लोकपालादिकोंको, समस्त जीवोंको, चारों वर्णाश्रमोंको एवं उनके धर्मोंको व्यवस्थापूर्वक रचनेवाले,
३८६ संस्थानः-प्रलयके सम्यक् स्थान,
३८७ स्थानदः – ध्रुवादि भक्तोंको स्थान देनेवाले,
३८८ ध्रुवः-अचल स्वरूप,
३८९ परर्द्धिः-श्रेष्ठ विभूतिवाले,
३९० परमस्पष्टः-ज्ञानस्वरूप होनेसे परम स्पष्टरूप,
३९१ तुष्टः-एकमात्र परमानन्दस्वरूप,
३९२ पुष्टः – एकमात्र सर्वत्र परिपूर्ण,
३९३ शुभेक्षणः– दर्शनमात्रसे कल्याण करनेवाले
रामो विरामो विरजो मार्गो नेयो नयोऽनयः ।
वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठो धर्मो धर्मविदुत्तमः || ५६ ॥
३९४ रामः-योगीजनोंके रमण करनेके लिये नित्यानन्दस्वरूप
३९५ विरामः-प्रलयके समय प्राणियोंको अपनेमें विराम देनेवाले
३९६ विरजः रजोगुण तथा तमोगुणसे सर्वथा शून्य
३९७ मार्गः-मुमुक्षुजनोंके अमर होनेके साधनस्वरूप
३९८ नेयः- उत्तम ज्ञानसे ग्रहण करनेयोग्य
३९९ नयः- सबको नियममें रखनेवाले
४०० अनयः – स्वतन्त्र
४०१ वीरः- पराक्रमशाली
४०२ शक्तिमतां श्रेष्ठः – शक्तिमानोंमें भी अतिशय शक्तिमान्
४०३ धर्मः- धर्मस्वरूप
४०४ धर्मविदुत्तमः-समस्त धर्मवेत्ताओंमें उत्तम
वैकुण्ठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः ।
हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः ।। ५७ ।।
४०५ वैकुण्ठः-परमधामस्वरूप
४०६ पुरुषः– विश्वरूप शरीरमें शयन करनेवाले
४०७ प्राणः-प्राणवायुरूपसे चेष्टा करनेवाले
४०८ प्राणदः सर्गके आदिमें प्राण प्रदान करनेवाले
४०९ प्रणवः – ओंकार-स्वरूप
४१० पृथुः-विराट्रूपसे विस्तृत होनेवाले
४११ हिरण्यगर्भः-ब्रह्मारूपसे प्रकट होनेवाले
४१२ शत्रुघ्नः – देवताओंके शत्रुओंको मारनेवाले
४१३ व्याप्तः-कारणरूपसे सब कार्योंमें व्याप्त
४१४ वायुः पवनरूप
४१५ अधोक्षजः– अपने स्वरूपसे क्षीण न होनेवाले
ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः ।
उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः ।। ५८ ।।
४१६ ऋतुः-ऋतुस्वरूप,
४१७ सुदर्शनः भक्तोंको सुगमतासे ही दर्शन दे देनेवाले,
४१८ कालः-सबकी गणना करनेवाले,
४१९ परमेष्ठी – अपनी प्रकृष्ट महिमामें स्थित रहनेके स्वभाववाले,
४२० परिग्रहः– शरणार्थियोंके द्वारा सब ओरसे ग्रहण किये जानेवाले,
४२१ उग्रः-सूर्यादिके भी भयके कारण,
४२२ संवत्सरः– सम्पूर्ण भूतोंके वासस्थान,
४२३ दक्ष :- सब कार्योंको बड़ी कुशलतासे करनेवाले,
४२४ विश्रामः– विश्रामकी इच्छावाले मुमुक्षुओंको मोक्ष देनेवाले,
४२५ विश्वदक्षिणः – बलिके यज्ञमें समस्त विश्वको दक्षिणारूपमें प्राप्त करनेवाले
विस्तारः स्थावरस्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम् ।
अर्थोऽनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः ।। ५९ ।।
४२६ विस्तारः-समस्त लोकोंके विस्तारके स्थान,
४२७ स्थावरस्थाणुः-स्वयं स्थितिशील रहकर पृथ्वी आदि, स्थितिशील पदार्थोंको अपनेमें स्थित रखनेवाले,
४२८ प्रमाणम्-ज्ञानस्वरूप होनेके कारण स्वयं प्रमाणरूप,
४२९ बीजमव्ययम्-संसारके अविनाशी कारण,
४३० अर्थ:-सुखस्वरूप होनेके कारण सबके द्वारा प्रार्थनीय,
४३१ अनर्थः-पूर्णकाम होनेके कारण प्रयोजनरहित,
४३२ महाकोश:-बड़े खजानेवाले,
४३३ महाभोगः-यथार्थ सुखरूप महान् भोगवाले,
४३४ महाधनः-अतिशय यथार्थ धनस्वरूप
अनिर्विण्णः स्थविष्ठोऽभूर्धर्मयूपो महामखः ।
नक्षत्रनेमिर्नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः ।। ६० ।।
४३५ अनिर्विण्णः– उकताहटरूप विकारसे रहित
४३६ स्थविष्ठः– विराट्रूपसे स्थित
४३७ अभूः– अजन्मा
४३८ धर्मयूपः– धर्मके स्तम्भरूप
४३९ महामखः– महान् यज्ञस्वरूप
४४० नक्षत्रनेमिः – समस्त नक्षत्रोंके केन्द्रस्वरूप
४४१ नक्षत्री – चन्द्ररूप
४४२ क्षमः – समस्त कार्योंमें समर्थ
४४३ क्षामः – समस्त जगत्के निवासस्थान
४४४ समीहनः– सृष्टि आदिके लिये भलीभाँति चेष्टा करनेवाले
यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः ।
सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमम् ।। ६१ ।।
४४५ यज्ञः-भगवान् विष्णु
४४६ इज्य:- पूजनीय
४४७ महेज्यः– सबसे अधिक उपासनीय
४४८ क्रतुः स्तम्भयुक्त यज्ञस्वरूप
४४९ सत्रम्-सत्पुरुषोंकी रक्षा करनेवाले
४५० सतां गतिः-सत्पुरुषोंकी परम गति
४५१ सर्वदर्शी – समस्त प्राणियोंको और उनके कार्योंको देखनेवाले
४५२ विमुक्तात्मा – सांसारिक बन्धनसे नित्यमुक्त आत्मस्वरूप
४५३ सर्वज्ञः-सबको जाननेवाले
४५४ ज्ञानमुत्तमम् – सर्वोत्कृष्ट ज्ञानस्वरूप
सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत् ।
मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुर्विदारणः ।। ६२ ।
४५५ सुव्रतः-प्रणतपालनादि श्रेष्ठ व्रतोंवाले
४५६ सुमुखः – सुन्दर और प्रसन्न मुखवाले
४५७ सूक्ष्मः– अणुसे भी अणु
४५८ सुघोषः – सुन्दर और गम्भीर वाणी बोलनेवाले
४५९ सुखदः-अपने भक्तोंको सब प्रकारसे सुख देनेवाले
४६० सुहृत्– प्राणिमात्रपर अहैतुकी दया करनेवाले परम मित्र
४६१ मनोहर:- अपने रूप-लावण्य और मधुर भाषणादिसे सबके मनको हरनेवाले
४६२ जितक्रोधः क्रोधपर विजय करनेवाले अर्थात् अपने साथ अत्यन्त अनुचित व्यवहार करनेवालेपर भी क्रोध न करनेवाले
४६३ वीरबाहुः – अत्यन्त पराक्रमशील भुजाओंसे युक्त
४६४ विदारणः– अधर्मियोंको नष्ट करनेवाले
स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत् ।
वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः ॥ ६३ ॥
४६५ स्वापनः-प्रलयकालमें समस्त प्राणियोंको अज्ञाननिद्रामें शयन करानेवाले
४६६ स्ववशः-स्वतन्त्र
४६७ व्यापी आकाशकी भाँति सर्वव्यापी
४६८ नैकात्मा– प्रत्येक युगमें लोकोद्धारके लिये अनेक रूप धारण करनेवाले
४६९ नैककर्मकृत्-जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयरूप तथा भिन्न-भिन्न अवतारोंमें मनोहर लीलारूप अनेक कर्म करनेवाले
४७० वत्सरः-सबके निवास स्थान
४७१ वत्सलः– भक्तोंके परम स्नेही
४७२ वत्सी– वृन्दावनमें बछड़ोंका पालन करनेवाले
४७३ रत्नगर्भः-रत्नोंको अपने गर्भमें धारण करनेवाले समुद्ररूप
४७४ धनेश्वरः– सब प्रकारके धनोंके स्वामी
धर्मगुब् धर्मकृद् धर्मी सदसत्क्षरमक्षरम् ।
अविज्ञाता सहस्रांशुर्विधाता कृतलक्षणः ।। ६४ ।
४७५ धर्मगुप्-धर्मकी रक्षा करनेवाले
४७६ धर्म-कृत्-धर्मकी स्थापना करनेके लिये स्वयं धर्मका आचरण करनेवाले
४७७ धर्मी-सम्पूर्ण धर्मोके आधार
४७८ सत्– सत्यस्वरूप
४७९ असत्-स्थूल जगत्स्वरूप
४८० क्षरम् – सर्वभूतमय
४८१ अक्षरम्– अविनाशी
४८२ अविज्ञाता-क्षेत्रज्ञ जीवात्माको विज्ञाता कहते हैं
४८३ सहस्रांशु:-हजारों किरणोंवाले सूर्यस्वरूप
४८४ विधाता – सबको अच्छी प्रकार धारण करनेवाले
४८५ कृतलक्षणः– श्रीवत्स आदि चिह्नोंको धारण करनेवाले
गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः ।
आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद्गुरुः ।। ६५ ॥
४८६ गभस्तिनेमिः-किरणोंके बीचमें सूर्यरूपसे स्थित,
४८७ सत्त्वस्थः– अन्तर्यामीरूपसे समस्त प्राणियोंके अन्तःकरणमें स्थित रहनेवाले,
४८८ सिंहः – भक्त प्रह्लादके लिये नृसिंहरूप धारण करनेवाले,
४८९ भूतमहेश्वरः सम्पूर्ण प्राणियोंके महान् ईश्वर,
४९० आदिदेवः सबके आदि कारण और दिव्यस्वरूप,
४९१ महादेवः-ज्ञानयोग और ऐश्वर्य आदि महिमाओंसे युक्त,
४९२ देवेशः– समस्त देवोंके स्वामी,
४९३ देवभृद्गुरुः– देवोंका विशेषरूपसे भरण-पोषण करनेवाले उनके परम गुरु
उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः ।
शरीरभूतभृद् भोक्ता कपीन्द्रो भूरिदक्षिणः ।। ६६ ॥
४९४ उत्तरः– संसार-समुद्रसे उद्धार करनेवाले और सर्वश्रेष्ठ
४९५ गोपतिः- गोपालरूपसे गायोंकी रक्षा करनेवाले
४९६ गोप्ता समस्त प्राणियोंका पालन और रक्षा करनेवाले
४९७ ज्ञानगम्यः- ज्ञानके द्वारा जाननेमें आनेवाले
४९८ पुरातनः सदा एकरस रहनेवाले, सबके आदि पुराणपुरुष
४९९ शरीरभूतभृत्-शरीरके उत्पादक पञ्चभूतोंका प्राणरूपसे पालन करनेवाले
५०० भोक्ता – निरतिशय आनन्दपुंजको भोगनेवाले
५०१ कपीन्द्रः– बंदरोंके स्वामी श्रीराम
५०२ भूरिदक्षिणः– श्रीरामादि अवतारोंमें यज्ञ करते समय बहुत-सी दक्षिणा प्रदान करनेवाले
सोमपोऽमृतपः सोमः पुरुजित् पुरुसत्तमः ।
विनयो जयः सत्यसंधो दाशार्हः सात्वतां पतिः ।। ६७ ।।
५०३ सोमपः-यज्ञोंमें देवरूपसे और यजमानरूपसे सोमरसका पान करनेवाले
५०४ अमृतपः-समुद्रमन्थनसे निकाला हुआ अमृत देवोंको पिलाकर स्वयं पीनेवाले
५०५ सोमः– ओषधियोंका पोषण करनेवाले चन्द्रमारूप
५०६ पुरुजित् – बहुतोंको विजय लाभ करनेवाले
५०७ पुरुसत्तमः– विश्वरूप और अत्यन्त श्रेष्ठ
५०८ विनयः– दुष्टोंको दण्ड देनेवाले
५०९ जयः- सबपर विजय प्राप्त करनेवाले
५१० सत्यसंधः-सच्ची प्रतिज्ञा करनेवाले
५११ दाशार्हः – दाशार्हकुलमें प्रकट होनेवाले
५१२ सात्वतां पतिः– यादवोंके और अपने भक्तोंके स्वामी
जीवो विनयितासाक्षी मुकुन्दोऽमितविक्रमः ।
अम्भोनिधिरनन्तात्मा महोदधिशयोऽन्तकः ।। ६८ ।।
५१३ जीवः – क्षेत्रज्ञरूपसे प्राणोंको धारण करनेवाले
५१४ विनयितासाक्षी – अपने शरणापन्न भक्तोंके विनय भावको तत्काल प्रत्यक्ष अनुभव करनेवाले
५१५ मुकुन्दः – मुक्तिदाता
५१६ अमितविक्रमः – वामनावतारमें पृथ्वी नापते समय अत्यन्त विस्तृत पैर रखनेवाले
५१७ अम्भोनिधिः – जलके निधान समुद्रस्वरूप
५१८ अनन्तात्मा – अनन्तमूर्ति
५१९ महोदधिशयः – प्रलयकालके महान् समुद्रमें शयन करनेवाले
५२० अन्तकः – प्राणियोंका संहार करनेवाले मृत्युस्वरूप
अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः ।
आनन्दो नन्दनो नन्दः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः ।। ६९ ।।
५२१ अजः-अकार भगवान् विष्णुका वाचक है
५२२ महार्हः– पूजनीय
५२३ स्वाभाव्यः– नित्य सिद्ध होनेके कारण स्वभावसे ही उत्पन्न न होनेवाले
५२४ जितामित्रः रावण- शिशुपालादि शत्रुओंको जीतनेवाले
५२५ प्रमोदनः – स्मरणमात्रसे नित्य प्रमुदित करनेवाले
५२६ आनन्दः – आनन्दस्वरूप
५२७ नन्दनः – सबको प्रसन्न करनेवाले
५२८ नन्दः – सम्पूर्ण ऐश्वर्योंसे सम्पन्न
५२९ सत्यधर्मा-धर्मज्ञानादि सब गुणोंसे युक्त
५३० त्रिविक्रमः-तीन डगमें तीनों लोकोंको नापनेवाले
महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः ।
त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाशृङ्गः कृतान्तकृत् ।। ७० ।।
५३१ महर्षिः कपिलाचार्य:- सांख्यशास्त्र के प्रणेता भगवान् कपिलाचार्य
५३२ कृतज्ञः-अपने भक्तोंकी सेवाको बहुत मानकर अपनेको उनका ऋणी समझनेवाले
५३३ मेदिनीपतिः– पृथ्वीके स्वामी
५३४ त्रिपदः त्रिलोकीरूप तीन पैरोंवाले विश्वरूप
५३५ त्रिदशाध्यक्षः-देवताओंके स्वामी
५३६ महाशृङ्गः– मत्स्यावतारमें महान् सींग धारण करनेवाले
५३७ कृतान्तकृत्-स्मरण करनेवालोंके समस्त कर्मोंका अन्त करनेवाले
महावराहो गोविन्दः सुषेणः कनकाङ्गदी ।
गुह्य गभीरो गहन गुप्तश्चक्रगदाधरः ।। ७१ ॥
५३८ महावराहः– हिरण्याक्षका वध करनेके लिये महावराहरूप धारण करनेवाले
५३९ गोविन्दः – नष्ट हुई पृथ्वीको पुनः प्राप्त कर लेनेवाले
५४० सुषेणः – पार्षदोंके समुदायरूप सुन्दर सेनासे सुसज्जित
५४१ कनकाङ्गदी– सुवर्णका बाजूबंद धारण करनेवाले
५४२ गुह्यः– हृदयाकाशमें छिपे रहनेवाले
५४३ गभीरः – अतिशय गम्भीर स्वभाववाले
५४४ गहन :- जिनके स्वरूपमें प्रविष्ट होना अत्यन्त कठिन हो – ऐसे
५४५ गुप्तः-वाणी और मनसे जाननेमें न आनेवाले
५४६ चक्रगदाधरः– भक्तोंकी रक्षा करने के लिये चक्र और गदा आदि दिव्य आयुधोंको धारण करनेवाले
वेधाः स्वाङ्गोऽजितः कृष्णो दृढः सङ्कर्षणोऽच्युतः ।
वरुणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः ।। ७२ ।।
५४७ वेधाः – सब कुछ विधान करनेवाले
५४८ स्वाङ्गः – कार्य करनेमें स्वयं ही सहकारी
५४९ अजितः – किसीके द्वारा न जीते जानेवाले
५५० कृष्णः – श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण
५५१ दृढः – अपने स्वरूप और सामर्थ्यसे कभी भी च्युत न होनेवाले
५५२ सङ्कर्षणोऽच्युतः – प्रलयकालमें एक साथ सबका संहार करनेवाले और जिनका कभी किसी भी कारणसे पतन न हो सके – ऐसे अविनाशी
५५३ वरुणः – जलके स्वामी वरुणदेवता
५५४ वारुणः – वरुणके पुत्र वशिष्ठस्वरूप
५५५ वृक्षः – अश्वत्थवृक्षरूप
५५६ पुष्कराक्षः – कमलके समान नेत्रवाले
५५७ महामनाः – संकल्पमात्रसे उत्पत्ति, पालन और संहार आदि समस्त लीला करनेकी शक्तिवाले
भगवान् भगहानन्दी वनमाली हलायुधः ।
आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णुर्गतिसत्तमः ।। ७३ ।।
५५८ भगवान् – उत्पत्ति और प्रलय, आना और जाना तथा विद्या और अविद्याको जाननेवाले एवं सर्वैश्वर्यादि छहों भगोंसे युक्त
५५९ भगहा – अपने भक्तोंका प्रेम बढ़ाने के लिये उनके ऐश्वर्यका हरण करनेवाले
५६० आनन्दी – परम सुखस्वरूप
५६१ वनमाली – वैजयन्ती वनमाला धारण करनेवाले
५६२ हलायुधः – हलरूप शस्त्रको धारण करनेवाले बलभद्रस्वरूप
५६३ आदित्यः – अदितिपुत्र वामन भगवान्
५६४ ज्योतिरादित्यः– सूर्यमण्डलमें विराजमान ज्योतिः स्वरूप
५६५ सहिष्णुः – समस्त द्वन्द्वोंको सहन करनेमें समर्थ
५६६ गतिसत्तमः– सर्वश्रेष्ठ गतिस्वरूप
सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः ।
दिविस्पृक् सर्वदृग् व्यासो वाचस्पतिरयोनिजः ।। ७४ ।।
५६७ सुधन्वा-अतिशय सुन्दर शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले
५६८ खण्डपरशुः– शत्रुओंका खण्डन करनेवाले फरसेको धारण करनेवाले परशुरामस्वरूप
५६९ दारुणः– सन्मार्गविरोधियोंके लिये महान् भयंकर
५७० द्रविणप्रदः – अर्थार्थी भक्तोंको धन-सम्पत्ति प्रदान करनेवाले
५७१ दिविस्पृक्-स्वर्गलोकतक व्याप्त
५७२ सर्वदृग् व्यासः-सबके द्रष्टा एवं वेदका विभाग करनेवाले श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासस्वरूप
५७३ वाचस्पतिरयोनिजः– विद्या स्वामी तथा बिना योनिके स्वयं ही प्रकट होनेवाले
त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक् ।
संन्यासकृच्छमः शान्तो निष्ठा शान्तिः परायणम् ।। ७५ ।।
५७४ त्रिसामा-देवव्रत आदि तीन साम श्रुतियोंद्वारा जिनकी स्तुति की जाती है – ऐसे परमेश्वर
५७५ सामगः सामवेदका गान करनेवाले
५७६ साम– सामवेदस्वरूप
५७७ निर्वाणम्-परमशान्तिके निधान परमानन्दस्वरूप
५७८ भेषजम् – संसार-रोगकी ओषधि
५७९ भिषक्-संसाररोगका नाश करनेके लिये गीतारूप उपदेशामृतका पान करानेवाले परम वैद्य
५८० संन्यासकृत्-मोक्षके लिये संन्यासाश्रम और संन्यासयोगका निर्माण करनेवाले
५८१ शमः – उपशमताका उपदेश देनेवाले
५८२ शान्तः-परम शान्तस्वरूप
५८३ निष्ठा सबकी स्थितिके आधार अधिष्ठानस्वरूप
५८४ शान्तिः – परम शान्तिस्वरूप
५८५ परायणम्-मुमुक्षु पुरुषोंके परम प्राप्य स्थान
शुभाङ्गः शान्तिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः ।
गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ।। ७६ ।।
५८६ शुभाङ्गः – अति मनोहर परम सुन्दर अंगोंवाले
५८७ शान्तिदः – परम शान्ति देनेवाले
५८८ स्रष्टा सर्गके आदिमें सबकी रचना करनेवाले
५८९ कुमुदः – पृथ्वीपर प्रसन्नतापूर्वक लीला करनेवाले
५९० कुवलेशयः – जलमें शेषनागकी शय्यापर शयन करनेवाले
५९१ गोहितः – गोपालरूपसे गायोंका और अवतार धारण करके भार उतारकर पृथ्वीका हित करनेवाले
५९२ गोपतिः – पृथ्वीके और गायोंके स्वामी
५९३ गोप्ता – अवतार धारण करके सबके सम्मुख प्रकट होते समय अपनी मायासे अपने स्वरूपको आच्छादित करनेवाले
५९४ वृषभाक्षः – समस्त कामनाओंकी वर्षा करनेवाली कृपादृष्टि से युक्त
५९५ वृषप्रियः – धर्मसे प्यार करनेवाले
अनिवर्ती निवृत्तात्मा संक्षेप्ता क्षेमकृच्छिवः ।
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतां वरः ।। ७७ ।।
५९६ अनिवर्ती – रणभूमिमें और धर्मपालनमें पीछे न हटनेवाले
५९७ निवृत्तात्मा– स्वभावसे ही विषय-वासनारहित नित्य शुद्ध मनवाले
५९८ संक्षेप्ता – विस्तृत जगत्को संहारकालमें संक्षिप्त यानी सूक्ष्म करनेवाले
५९९ क्षेमकृत् – शरणागतकी रक्षा करनेवाले
६०० शिवः– स्मरणमात्रसे पवित्र करनेवाले कल्याणस्वरूप
६०१ श्रीवत्सवक्षाः श्रीवत्स नामक चिह्नको वक्षःस्थलमें धारण करनेवाले
६०२ श्रीवासः श्रीलक्ष्मीजीके वासस्थान
६०३ श्रीपतिः– परमशक्तिरूपा श्रीलक्ष्मीजीके स्वामी
६०४ श्रीमतां वरः– सब प्रकारकी सम्पत्ति और ऐश्वर्यसे युक्त ब्रह्मादि समस्त लोकपालोंसे श्रेष्ठ
श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः ।
श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमाँल्लोकत्रयाश्रयः ।। ७८ ।।
६०५ श्रीदः – भक्तोंको श्री प्रदान करनेवाले
६०६ श्रीशः – लक्ष्मीके नाथ
६०७ श्रीनिवासः – श्रीलक्ष्मीजीके अन्तःकरणमें नित्य निवास करनेवाले
६०८ श्रीनिधिः – समस्त श्रियोंके आधार
६०९ श्रीविभावनः – सब मनुष्योंके लिये उनके कर्मानुसार नाना प्रकारके ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले
६१० श्रीधरः – जगज्जननी श्रीको वक्षःस्थलमें धारण करनेवाले
६११ श्रीकरः – स्मरण, स्तवन और अर्चन आदि करनेवाले भक्तोंके लिये श्रीका विस्तार करनेवाले
६१२ श्रेयः – कल्याणस्वरूप
६१३ श्रीमान् – सब प्रकारकी श्रियोंसे युक्त
६१४ लोकत्रयाश्रयः – तीनों लोकोंके आधार
स्वक्षः स्वङ्गः शतानन्दो नन्दिज्र्ज्योतिर्गणेश्वरः ।
विजितात्माविधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्न संशयः ।। ७९ ।।
६१५ स्वक्षः मनोहर कृपाकटाक्षसे युक्त परम सुन्दर आँखोंवाले,
६१६ स्वङ्गः– अतिशय कोमल, परम सुन्दर, मनोहर अंगोंवाले,
६१७ शतानन्दः – लीलाभेदसे सैकड़ों विभागोंमें विभक्त आनन्दस्वरूप,
६१८ नन्दिः – परमानन्दस्वरूप,
६१९ ज्योतिर्गणेश्वरः– नक्षत्रसमुदायोंके ईश्वर,
६२० विजितात्मा जिते हुए मनवाले,
६२१ अविधेयात्मा-जिनके असली स्वरूपका किसी प्रकार भी वर्णन नहीं किया जा सके- ऐसे अनिर्वचनीयस्वरूप,
६२२ सत्कीर्तिः– सच्ची कीर्तिवाले,
६२३ छिन्नसंशयः – सब प्रकारके संशयोंसे रहित
उदीर्णः सर्वतश्चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः ।
भूयोभूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः ।। ८० ।।
६२४ उदीर्णः– सब प्राणियोंसे श्रेष्ठ,
६२५ सर्व-तश्चक्षुः समस्त वस्तुओंको सब दिशाओं में सदा-सर्वदा देखनेकी शक्तिवाले,
६२६ अनीशः – जिनका दूसरा कोई शासक न हो – ऐसे स्वतन्त्र,
६२७ शाश्वतस्थिरः – सदा एकरस स्थिर रहनेवाले, निर्विकार,
६२८ भूशयः-लंकागमनके लिये मार्गकी याचना करते समय समुद्रतटकी भूमिपर शयन करनेवाले,
६२९ भूषणः स्वेच्छासे नाना अवतार लेकर अपने चरण-चिह्नोंसे भूमिकी शोभा बढ़ानेवाले,
६३० भूतिः– समस्त विभूतियोंके आधारस्वरूप,
६३१ विशोकः-सब प्रकार शोकरहित,
६३२ शोकनाशन:- स्मृतिमात्रसे भक्तोंके शोकका समूल नाश करनेवाले
अर्चिष्मानर्चितः कुम्भो विशुद्धात्मा विशोधनः |
अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः ।। ८१ ॥
६३३ अर्चिष्मान्-चन्द्र-सूर्य आदि समस्त ज्योतियोंको देदीप्यमान करनेवाली अतिशय प्रकाशमय अनन्त किरणोंसे युक्त
६३४ अर्चितः – ब्रह्मादि समस्त लोकोंसे पूजे जानेवाले
६३५ कुम्भः-घटकी भाँति सबके निवासस्थान
६३६ विशुद्धात्मा-परम शुद्ध निर्मल आत्मस्वरूप
६३७ विशोधनः – स्मरणमात्रसे समस्त पापोंका नाश करके भक्तोंके अन्तःकरणको परम शुद्ध कर देनेवाले
६३८ अनिरुद्धः – जिनको कोई बाँधकर नहीं रख सके— ऐसे चतुर्व्यूहमें अनिरुद्धस्वरूप
६३९ अप्रतिरथः– प्रतिपक्षसे रहित
६४० प्रद्युम्नः– परम श्रेष्ठ अपार धनसे युक्त चतुर्व्यूहमें प्रद्युम्नस्वरूप
६४१ अमितविक्रमः-अपार पराक्रमी
कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः ।
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः ।। ८२ ।।
६४२ कालनेमिनिहा-कालनेमि नामक असुरको मारनेवाले,
६४३ वीरः परम शूरवीर,
६४४ शौरिः– शूरकुलमें उत्पन्न होनेवाले श्रीकृष्णस्वरूप,
६४५ शूरजनेश्वरः-अतिशय शूरवीरताके कारण इन्द्रादि शूरवीरोंके भी इष्ट,
६४६ त्रिलोकात्मा – अन्तर्यामीरूपसे तीनों लोकोंके आत्मा,
६४७ त्रिलोकेशः तीनों लोकोंके स्वामी,
६४८ केशवः– ब्रह्मा, विष्णु और शिव-स्वरूप,
६४९ केशिहा – केशी नामके असुरको मारनेवाले,
६५० हरिः – स्मरणमात्रसे समस्त पापोंका हरण करनेवाले
कामदेवः कामपालः कामी कान्तः कृतागमः ।
अनिर्देश्यवपुर्विष्णुर्वीरोऽनन्तो धनंजयः ।। ८३ ।
६५१ कामदेवः-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थोंको चाहनेवाले मनुष्योंद्वारा अभिलषित समस्त कामनाओंके अधिष्ठाता परमदेव,
६५२ कामपालः-सकामी भक्तोंकी कामनाओं की पूर्ति करनेवाले,
६५३ कामी – अपने प्रियतमोंको चाहनेवाले,
६५४ कान्तः– परम मनोहर स्वरूप,
६५५ कृतागमः– समस्त वेद और शास्त्रोंको रचनेवाले,
६५६ अनिर्देश्यवपुः-जिनके दिव्य स्वरूपका किसी प्रकार भी वर्णन नहीं किया जा सके-ऐसे अनिर्वचनीय शरीरवाले,
६५७ विष्णुः शेषशायी भगवान् विष्णु,
६५८ वीरः – बिना ही पैरों के गमन करनेकी दिव्य शक्तिसे युक्त,
६५९ अनन्तः – जिनके स्वरूप, शक्ति, ऐश्वर्य, सामर्थ्य और गुणोंका कोई भी पार नहीं पा सकता – ऐसे अविनाशी गुण, प्रभाव और शक्तियों से युक्त,
६६० धनञ्जयः – अर्जुनरूपसे दिग्विजयके समय बहुत सा धन जीतकर लानेवाले
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः ।
ब्रह्मविद् ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः ।। ८४ ।।
६६१ ब्रह्मण्यः-तप, वेद, ब्राह्मण और ज्ञानकी रक्षा करनेवाले
६६२ ब्रह्मकृत्-पूर्वोक्त तप आदिकी रचना करनेवाले
६६३ ब्रह्मा ब्रह्मारूपसे जगत्को उत्पन्न करनेवाले
६६४ ब्रह्म-सच्चिदानन्दस्वरूप
६६५ ब्रह्मविवर्धनः– पूर्वात ब्रह्मशब्दवाची तप आदिकी वृद्धि करनेवाले
६६६ ब्रह्मवित्-वेद और वेदार्थको पूर्णतया जाननेवाले
६६७ ब्राह्मणः– समस्त वस्तुओंको ब्रह्मरूपसे देखनेवाले
६६८ ब्रह्मी ब्रह्मशब्दवाची तपादि समस्त पदार्थोंके अधिष्ठान
६६९ ब्रह्मज्ञः – अपने आत्मस्वरूप ब्रह्मशब्दवाची वेदको पूर्णतया यथार्थ जाननेवाले
६७० ब्राह्मणप्रियः ब्राह्मणोंको अतिशय प्रिय माननेवाले
महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः ।
महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः ।। ८५ ।
६७१ महाक्रमः – बड़े वेगसे चलनेवाले,
६७२ महाकर्मा – भिन्न-भिन्न अवतारोंमें नाना प्रकारके महान् कर्म करनेवाले,
६७३ महातेजाः – जिसके तेजसे समस्त सूर्य आदि तेजस्वी देदीप्यमान होते हैं – ऐसे महान् तेजस्वी,
६०४ महोरगः – बड़े भारी सर्प यानी वासुकिस्वरूप,
६७५ महाक्रतुः – महान् यज्ञस्वरूप,
६७६ महायज्वा – लोकसंग्रहके लिये बड़े-बड़े यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाले,
६७७ महायज्ञः – जपयज्ञ आदि भगवत्प्राप्तिके साधनरूप समस्त यज्ञ जिनकी विभूतियाँ हैं – ऐसे महान् यज्ञस्वरूप,
६७८ महाहविः – ब्रह्मरूप अग्निमें हवन किये जाने योग्य प्रपञ्चरूप हवि जिनका स्वरूप है – ऐसे महान् हविःस्वरूप
स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः ।
पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः ।। ८६ ।
६७९ स्तव्यः-सबके द्वारा स्तुति किये जाने योग्य
६८० स्तवप्रियः स्तुति से प्रसन्न होनेवाले
६८१ स्तोत्रम् – जिनके द्वारा भगवान्के गुण प्रभावका कीर्तन किया जाता है, वह स्तोत्र
६८२ स्तुतिः स्तवनक्रियास्वरूप
६८३ स्तोता – स्तुति करनेवाले
६८४ रणप्रियः– युद्धमें प्रेम करनेवाले
६८५ पूर्णः – समस्त ज्ञान, शक्ति, ऐश्वर्य और गुणोंसे परिपूर्ण
६८६ पूरयिता अपने भक्तोंको सब प्रकारसे परिपूर्ण करनेवाले
६८७ पुण्यः स्मरणमात्रसे पापों का नाश करनेवाले पुण्यस्वरूप
६८८ पुण्यकीर्तिः परमपावन कीर्तिवाले
६८९ अनामयः– आन्तरिक और बाह्य सब प्रकारकी व्याधियोंसे रहित
मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः ।
वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः ।। ८७ ।
६९० मनोजवः – मनकी भाँति वेगवाले
६९१ तीर्थकर :- समस्त विद्याओंके रचयिता और उपदेशकर्ता
६९२ वसुरेताः – हिरण्यमय पुरुष ( प्रथम पुरुषसृष्टिका बीज) जिनका वीर्य है – ऐसे सुवर्णवीर्य
६९३ वसुप्रदः – प्रचुर धन प्रदान करनेवाले
६९४ वसुप्रदः– अपने भक्तोंको मोक्षरूप महान् धन देनेवाले
६९५ वासुदेवः – वसुदेवपुत्र श्रीकृष्ण
६९६ वसुः- सबके अन्तःकरणमें निवास करनेवाले
६९७ वसुमनाः समानभावसे सबमें निवास करनेकी शक्तिसे युक्त मनवाले
६९८ हविः – यज्ञमें हवन किये जाने योग्य हविःस्वरूप
सद्गतिः सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः ।
शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः ।। ८८ ।।
६९९ सद्गतिः- सत्पुरुषों द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य गतिस्वरूप,
७०० सत्कृतिः- जगत्की रक्षा आदि सत्कार्य करनेवाले,
७०१ सत्ता – सदा-सर्वदा विद्यमान सत्तास्वरूप,
७०२ सद्भूतिः- बहुत प्रकारसे बहुत रूपों में भासित होनेवाले,
७०३ सत्परायणः- सत्पुरुषों के परम प्रापणीय स्थान,
७०४ शूरसेनः – हनुमानादि श्रेष्ठ शूरवीर योद्धाओं से युक्त सेनावाले,
७०५ यदुश्रेष्ठः यदुवंशियों में सर्वश्रेष्ठ,
७०६ सन्निवासः सत्पुरुषों के आश्रय,
७०७ सुयामुनः- जिनके परिकर यमुना तट निवासी गोपालबाल आदि अति सुन्दर हैं, ऐसे श्रीकृष्ण
भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयोऽनलः ।
दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरोऽथापराजितः ।। ८९ ।।
७०८ भूतावासः – समस्त प्राणियों के मुख्य निवास स्थान
७०९ वासुदेवः – अपनी मायासे जगत्को आच्छादित करनेवाले परमदेव
७१० सर्वासुनिलयः – समस्त प्राणियों के आधार
७११ अनलः – अपार शक्ति और सम्पत्तिसे युक्त
७१२ दर्पहा – धर्मविरुद्ध मार्गमें चलनेवालोंके घमण्डको नष्ट करनेवाले
७१३ दर्पदः – अपने भक्तोंको विशुद्ध उत्साह प्रदान करनेवाले
७१४ दृप्तः – नित्यानन्दमग्न
७१५ दुर्धरः – बड़ी कठिनतासे हृदयमें धारित होनेवाले
७१६ अपराजितः – दूसरोंसे अजित
विश्वमूर्तिर्महामूर्तिर्दीप्तमूर्तिरमूर्तिमान् ।
अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः ।। ९० ।।
७१७ विश्वमूर्तिः- समस्त विश्व ही जिनकी मूर्ति है – ऐसे विराट्स्वरूप
७१८ महामूर्तिः-बड़े रूपवाले
७१९ दीप्तमूर्तिः स्वेच्छासे धारण किये हुए देदीप्यमान स्वरूपसे युक्त
७२० अमूर्तिमान् – जिनकी कोई मूर्ति नहीं – ऐसे निराकार
७२१ अनेकमूर्तिः- नाना अवतारोंमें स्वेच्छासे लोगोंका उपकार करनेके लिये बहुत मूर्तियोंको धारण करनेवाले
७२२ अव्यक्तः-अनेक मूर्ति होते हुए भी जिनका स्वरूप किसी प्रकार व्यक्त न किया जा सके- ऐसे अप्रकटस्वरूप
७२३ शतमूर्तिः – सैकड़ों मूर्तियोंवाले
७२४ शताननः – सैकड़ों मुखवा
एको नैकः सवः कः किं यत् तत् पदमनुत्तमम् ।
लोकबन्धुर्लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः ।। ९१ ।।
७२५ एकः-सब प्रकारके भेद-भावोंसे रहित अद्वितीय,
७२६ नैकः-अवतार-भेद अनेक,
७२७ सवः-जिनमें सोमनामकी ओषधिका रस निकाला जाता है— ऐसे यज्ञ-स्वरूप,
७२८ कः-सुखस्वरूप,
७२९ किम्-विचारणीय ब्रह्मस्वरूप,
७३० यत्-स्वतः सिद्ध,
७३१ तत्-विस्तार करनेवाले,
७३२ पदमनुत्तमम् – मुमुक्षु पुरुषोंद्वारा प्राप्त किये जाने योग्य अत्युत्तम परमपदस्वरूप,
७३३ लोकबन्धुः– समस्त प्राणियोंके हित करनेवाले परम मित्र,
७३४ लोकनाथः-सबके द्वारा याचना किये जानेयोग्य लोकस्वामी,
७३५ माधवः– मधुकुलमें उत्पन्न होनेवाले,
७३६ भक्तवत्सलः– भक्तोंसे प्रेम करनेवाले
सुवर्णवर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी ।
वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरचलश्चलः ।। ९२ ।।
७३७ सुवर्णवर्णः-सोनेके समान पीतवर्णवाले
७३८ हेमाङ्गः– सोनेके समान चमकीले अङ्गोंवाले
७३९ वराङ्गः परम श्रेष्ठ अंग-प्रत्यंगोंवाले
७४० चन्दनाङ्गदी – चन्दनके लेप और बाजूबंद सुशोभित
७४१ वीरहा शूरवीर असुरोंका नाश करनेवाले
७४२ विषमः– जिनके समान दूसरा कोई नहीं – ऐसे अनुपम
७४३ शून्यः – समस्त विशेषणोंसे रहित
७४४ घृताशीः– अपने आश्रित जनोंके लिये कृपासे सने हुए द्रवित संकल्प करनेवाले
७४५ अचलः-किसी प्रकार भी विचलित न होनेवाले – अविचल
७४६ चलः-वायुरूपसे सर्वत्र गमन करनेवाले
अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक् ।
सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः ।। ९३ ।
७४७ अमानी-स्वयं मान न चाहनेवाले
७४८ मानदः – दूसरोंको मान देनेवाले
७४९ मान्यः– सबके पूजनेयोग्य माननीय
७५० लोकस्वामी – चौदह भुवनोंके स्वामी
७५१ त्रिलोकधृक्-तीनों लोकोंको धारण करनेवाले
७५२ सुमेधाः– अति उत्तम सुन्दर बुद्धिवाले
७५३ मेधजः-यज्ञमें प्रकट होनेवाले
७५४ धन्यः – नित्य कृतकृत्य होनेके कारण सर्वथा धन्यवादके पात्र
७५५ सत्यमेधाः – सच्ची और श्रेष्ठ बुद्धिवाले
७५६ धराधरः-अनन्त भगवान्के रूपसे पृथ्वीको धारण करनेवाले
तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः ।
प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकशृङ्गो गदाग्रजः ।। ९४ ।।
७५७ तेजोवृषः – अपने भक्तों पर आनन्दमय तेज की वर्षा करनेवाले,
७५८ द्युतिधरः – परम कान्तिको धारण करनेवाले,
७५९ सर्वशस्त्रभृतां वरः – समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ,
७६० प्रग्रहः – भक्तों के द्वारा अर्पित पत्र – पुष्पादिकों को ग्रहण करनेवाले,
७६१ निग्रहः – सबका निग्रह करनेवाले,
७६२ व्यग्रः – अपने भक्तों को अभीष्ट फल देने में लगे हुए,
७६३ नैकशृङ्गः – नाम, आख्यात, उपसर्ग, और निपात रूप चार सींगों को धारण करनेवाले शब्दब्रह्म स्वरूप,
७६४ गदाग्रजः – गदा से पहले जन्म लेनेवाले श्रीकृष्ण
चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुर्व्यूहश्चतुर्गतिः ।
चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदविदेकपात् ।। ९५ ।।
७६५ चतुर्मूर्तिः-राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्नरूप चार मूर्तियोंवाले,
७६६ चतुर्बाहुः-चार भुजाओंवाले,
७६७ चतुर्व्यूहः– वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध – इन चार व्यूहों से युक्त,
७६८ चतुर्गतिः – सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्यरूप चार परम गतिस्वरूप,
७६९ चतुरात्मा-मन, बुद्धि, अहंकार और चित्तरूप चार अन्तःकरणवाले,
७७० चतुर्भावः– धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थोंके उत्पत्तिस्थान,
७७१ चतुर्वेदवित्-चारों वेदोंके अर्थको भलीभाँति जाननेवाले,
७७२ एकपात्-एक पादवाले यानी एक पाद (अंश) – से समस्त विश्वको व्याप्त करनेवाले
समावर्तोऽनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः ।
दुर्लभो दुर्गमो दुर्गे दुरावासो दुरारिहा ।। ९६ ॥
७७३ समावर्तः-संसारचक्रको भलीभाँति घुमानेवाले
७७४ अनिवृत्तात्मा सर्वत्र विद्यमान होनेके कारण जिनका आत्मा कहींसे भी हटा हुआ नहीं है, ऐसे
७७५ दुर्जयः– किसीसे भी जीतनेमें न आनेवाले
७७६ दुरतिक्रमः – जिनकी आज्ञाका कोई उल्लंघन नहीं कर सके, ऐसे
७७७ दुर्लभः – बिना भक्तिके प्राप्त न होनेवाले
७७८ दुर्गमः कठिनता से जाननेमें आनेवाले
७७९ दुर्गः कठिनतासे प्राप्त होनेवाले
७८० दुरावासः– बड़ी कठिनतासे योगीजनोंद्वारा हृदयमें बसाये जानेवाले
७८१ दुरारिहा दुष्ट मार्गमें चलनेवाले दैत्योंका वध करनेवाले
शुभाङ्गो लोकसारङ्गः सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः ।
इन्द्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः ।। ९७ ।
७८२ शुभाङ्गः-कल्याणकारक सुन्दर अंगोंवाले
७८३ लोकसारङ्गः-लोकोंके सारको ग्रहण करनेवाले
७८४ सु तन्तुः– सुन्दर विस्तृत जगत्रूप तन्तुवाले
७८५ तन्तु वर्धनः– पूर्वोक्त जगत्-तन्तुको बढ़ानेवाले
७८६ इन्द्रकर्मा इन्द्रके समान कर्मवाले
७८७ महाकर्मा– बड़े-बड़े कर्म करनेवाले
७८८ कृतकर्मा– जो समस्त कर्तव्य कर्म कर चुके हों, जिनका कोई कर्तव्य शेष न रहा हो
७८९ कृतागमः – स्वोचित अनेक कार्योंको पूर्ण करनेके लिये अवतार धारण करके आनेवाले
उद्भवः सुन्दरः सुन्दो रत्ननाभः सुलोचनः ।
अर्को वाजसनः शृङ्गी जयन्तः सर्वविज्जयी ।। ९८ ।।
७९० उद्भवः-स्वेच्छासे श्रेष्ठ जन्म धारण करनेवाले
७९१ सुन्दरः – परम सुन्दर
७९२ सुन्दः – परम करुणाशील
७९३ रत्ननाभः – रत्नके समान सुन्दर नाभिवाले
७९४ सुलोचनः – सुन्दर नेत्रोंवाले
७९५ अर्क:- ब्रह्मादि पूज्य पुरुषोंके भी पूजनीय
७९६ वाजसनः – याचकोंको अन्न प्रदान करनेवाले
७९७ शृङ्गी – प्रलयकालमें सींगयुक्त मत्स्यविशेषका रूप धारण करनेवाले
७९८ जयन्तः – शत्रुओंको पूर्णतया जीतनेवाले
७९९ सर्वविज्जयी – सब कुछ जाननेवाले और सबको जीतनेवाले
सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः ।
महाहृदो महागर्तो महाभूतो महानिधिः ।। ९९ ।।
८०० सुवर्णबिन्दुः-सुन्दर अक्षर और बिन्दुसे युक्त ओंकारस्वरूप
८०१ अक्षोभ्यः– किसीके द्वारा भी क्षुभित न किये जा सकनेवाले
८०२ सर्ववागीश्वरेवरः– समस्त वाणीपतियोंके यानी ब्रह्मादिके भी स्वामी
८०३ महाहृदः – ध्यान करनेवाले जिसमें गोता लगाकर आनन्दमें मग्न होते हैं, ऐसे परमानन्दके महान् सरोवर
८०४ महागर्तः महान् रथवाले
८०५ महाभूतः – त्रिकालमें कभी नष्ट न होनेवाले महाभूतस्वरूप
८०६ महानिधिः– सबके महान् निवास स्थान
कुमुदः कुन्दरः कुन्दः पर्जन्यः पावनोऽनिलः ।
अमृताशोऽमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः || १०० ।।
८०७ कुमुदः कु अर्थात् पृथ्वीको उसका भार उतारकर प्रसन्न करनेवाले
८०८ कुन्दरः- हिरण्याक्षको मारनेके लिये पृथ्वीको विदीर्ण करनेवाले
८०९ कुन्दः – परशुराम- अवतारमें पृथ्वी प्रदान करनेवाले
८१० पर्जन्यः – बादलकी भाँति समस्त इष्ट वस्तुओंकी वर्षा करनेवाले
८११ पावनः- स्मरणमात्रसे पवित्र करनेवाले
८१२ अनिलः सदा प्रबुद्ध रहनेवाले
८१३ अमृताशः – जिनकी आशा कभी विफल न हो – ऐसे अमोघसंकल्प
८१४ अमृतवपुः-जिनका कलेवर कभी नष्ट न हो – ऐसे नित्य विग्रह
८१५ सर्वज्ञः सदा-सर्वदा सब कुछ जाननेवाले
८१६ सर्वतोमुखः सब ओर मुखवाले यानी जहाँ कहीं भी उनके भक्त भक्तिपूर्वक पत्र-पुष्पादि जो कुछ भी अर्पण करें, उसे भक्षण करनेवाले
सुलभः सुव्रतः सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः ।
न्यग्रोधोदुम्बरोऽश्वत्थश्चाणूरान्ध्रनिषूदनः ।। १०१ ।।
८१७ सुलभः – नित्य-निरन्तर चिन्तन करनेवालेको और एकनिष्ठ श्रद्धालु भक्तको बिना ही परिश्रम सुगमतासे प्राप्त होनेवाले,
८१८ सुव्रतः – सुन्दर भोजन करनेवाले यानी अपने भक्तों द्वारा प्रेमपूर्वक अर्पण किये हुए पत्र – पुष्पादि मामूली भोजनको भी परम श्रेष्ठ मानकर खानेवाले,
८१९ सिद्धः – स्वभावसे ही समस्त सिद्धियोंसे युक्त,
८२० शत्रुजित् – देवता और सत्पुरुषोंके शत्रुओंको जीतनेवाले,
८२१ शत्रुतापनः – देव- शत्रुओंको तपानेवाले,
८२२ न्यग्रोधः – वटवृक्षरूप,
८२३ उदुम्बरः – कारणरूपसे आकाशके भी ऊपर रहनेवाले,
८२४ अश्वत्थः – पीपल वृक्षस्वरूप,
८२५ चाणूरान्ध्रनिषूदनः – चाणूर नामक अन्ध्रजातिके वीर मल्लको मारनेवाले
सहस्रार्चिः सप्तजिह्वः सप्तैधाः सप्तवाहनः ।
अमूर्तिरनघोऽचिन्त्यो भयकृद् भयनाशनः ।। १०२ ।।
८२६ सहस्रार्चिः – अनन्त किरणोंवाले सूर्यरूप
८२७ सप्तजिह्वः – काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, धूम्रवर्णा, स्फुलिंगिनी और विश्वरुचि – इन सात जिह्वाओंवाले अग्निस्वरूप
८२८ सप्तैधाः – सात दीप्तिवाले अग्निस्वरूप
८२९ सप्तवाहनः – सात घोड़ोंवाले सूर्यरूप
८३० अमूर्ति:- मूर्तिरहित निराकार
८३१ अनघः – सब प्रकारसे निष्पाप
८३२ अचिन्त्यः – किसी प्रकार भी चिन्तन करनेमें न आनेवाले अव्यक्तस्वरूप
८३३ भयकृत् – दुष्टों को भयभीत करनेवाले
८३४ भयनाशनः – स्मरण करनेवालोंके और सत्पुरुषोंके भयका नाश करनेवाले
बृहत्कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान् ।
अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः ।। १०३ ।।
८३५ अणुः – अत्यन्त सूक्ष्म
८३६ बृहत् – सबसे बड़े
८३७ कृशः – अत्यन्त पतले और हलके
८३८ स्थूलः – अत्यन्त मोटे और भारी
८३९ गुणभृत् – समस्त गुणों को धारण करने वाले
८४० निर्गुणः – सत्त्व, रज, और तम – इन तीनों गुणों से अतीत
८४१ महान् – गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य, और ज्ञान आदि की अतिशयता के कारण परम महत्त्वसम्पन्न
८४२ अधृतः – जिनको कोई भी धारण नहीं कर सकता – ऐसे निराधार
८४३ स्वधृतः – अपने-आपसे धारित, यानी अपनी ही महिमामें स्थित
८४४ स्वास्यः – सुंदर मुखवाले
८४५ प्राग्वंश – जिनसे समस्त वंश-परम्परा आरम्भ हुई है, ऐसे समस्त पूर्वजों के भी पूर्वज आदिपुरुष
८४६ वंशवर्धनः – जगत्-प्रपंच रूप वंशको और यादव वंशको बढ़ाने वाले
भारभृत् कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः ।
आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ।। १०४ ।।
८४७ भारभृत् शेषनाग आदिके रूपमें पृथ्वीका भार उठानेवाले और अपने भक्तोंके योगक्षेमरूप भारको वहन करनेवाले,
८४८ कथितः – वेद-शास्त्र और महापुरुषोंद्वारा जिनके गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और स्वरूपका बारंबार कथन किया गया है, ऐसे सबके द्वारा वर्णित,
८४९ योगी– नित्य समाधियुक्त,
८५० योगीशः – समस्त योगियोंके स्वामी,
८५१ सर्वकामदः– समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले,
८५२ आश्रमः – सबको विश्राम देनेवाले,
८५३ श्रमणः- दुष्टों को संतप्त करनेवाले,
८५४ क्षामः – प्रलयकालमें सब प्रजाका क्षय करनेवाले,
८५५ सुपर्णः-वेदरूप सुन्दर पत्तोंवाले (संसारवृक्षस्वरूप),
८५६ वायुवाहनः – वायुको गमन करनेके लिये शक्ति देनेवाले
धनुर्धरो धनुर्वेदो दण्डो दमयिता दमः ।
अपराजितः सर्वसहो नियन्ता नियमो यमः ।। १०५ ।।
८५७ धनुर्धरः-धनुषधारी श्रीराम
८५८ धनुर्वेदः – धनुर्विद्याको जाननेवाले श्रीराम
८५९ दण्डः– दमन करनेवालोंकी दमनशक्ति
८६० दमयिता – यम और राजा आदिके रूपमें दमन करनेवाले
८६१ दमः-दण्डका कार्य यानी जिनको दण्ड दिया जाता है, उनका सुधार
८६२ अपराजितः-शत्रुओंद्वारा पराजित न होनेवाले
८६३ सर्वसहः – सब कुछ सहन करनेकी सामर्थ्यसे युक्त, अतिशय तितिक्षु
८६४ नियन्ता – सबको अपने-अपने कर्तव्यमें नियुक्त करनेवाले
८६५ अनियमः – नियमोंसे न बँधे हुए, जिनका कोई भी नियन्त्रण करनेवाला नहीं, ऐसे परमस्वतन्त्र
८६६ अयमः – जिनका कोई शासक नहीं
सत्त्ववान् सात्त्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः ।
अभिप्रायः प्रियार्होऽर्हः प्रियकृत् प्रीतिवर्धनः ।। १०६ ।।
८६७ सत्त्ववान्-बल, वीर्य, सामर्थ्य आदि समस्त तत्त्वोंसे सम्पन्न
८६८ सात्त्विकः– सत्त्वगुणप्रधानविग्रह
८६९ सत्यः सत्यभाषणस्वरूप
८७० सत्यधर्मपरायणः-यथार्थ भाषण और धर्मके परम आधार
८७१ अभिप्रायः– प्रेमीजन जिनको चाहते हैं- ऐसे परम इष्ट
८७२ प्रियार्हः-अत्यन्त प्रिय वस्तु समर्पण करनेके लिये योग्य पात्र
८७३ अर्हः– सबके परम पूज्य
८७४ प्रियकृत् भजनेवालोंका प्रिय करनेवाले
८७५ प्रीतिवर्धनः– अपने प्रेमियोंके प्रेमको बढ़ानेवाले
विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग् विभुः ।
रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः ।। १०७ ॥
८७६ विहायसगतिः– आकाशमें गमन करनेवाले
८७७ ज्योतिः – स्वयंप्रकाशस्वरूप
८७८ सुरुचिः-सुन्दर रुचि और कान्तिवाले
८७९ हुतभुक्-यज्ञमें हवन की हुई समस्त हविको अग्निरूपसे भक्षण करनेवाले
८८० विभुः सर्वव्यापी
८८१ रविः– समस्त रसोंका शोषण करनेवाले सूर्य
८८२ विरोचनः – विविध प्रकारसे प्रकाश फैलानेवाले
८८३ सूर्य:- शोभाको प्रकट करनेवाले
८८४ सविता – समस्त जगत्को उत्पन्न करनेवाले
८८५ रविलोचनः-सूर्यरूप नेत्रोंवाले
अनन्तो हुतभुग् भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः ।
अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकाधिष्ठानमद्भुतः ।। १०८ ।।
८८६ अनन्तः-सब प्रकारसे अन्तरहित,
८८७ हुतभुक् – यज्ञमें हवन की हुई सामग्रीको उन-उन देवताओंके रूपमें भक्षण करनेवाले,
८८८ भोक्ता जगत्का पालन करनेवाले,
८८९ सुखदः भक्तोंको दर्शनरूप परम सुख देनेवाले,
८९० नैकजः धर्मरक्षा, साधुरक्षा आदि परम विशुद्ध हेतुओंसे स्वेच्छापूर्वक अनेक जन्म धारण करनेवाले,
८९१ अग्रजः– सबसे पहले जन्मनेवाले आदिपुरुष,
८९२ अनिर्विण्णः पूर्णकाम होनेके कारण उकताहटसे रहित,
८९३ सदामर्षी – सत्पुरुषोंपर क्षमा करनेवाले,
८९४ लोकाधिष्ठानम्– समस्त लोकोंके आधार,
८९५ अद्भूतः – अत्यन्त आश्चर्यमय
सनात् सनातनतमः कपिलः कपिरप्ययः ।
स्वस्तिदः स्वस्तिकृत् स्वस्ति स्वस्तिभुक् स्वस्तिदक्षिणः ।। १०९ ।।
८९६ सनात्-अनन्तकालस्वरूप,
८९७ सनातनतमः सबके कारण होनेसे ब्रह्मादि पुरुषोंकी अपेक्षा भी परम पुराणपुरुष,
८९८ कपिलः – महर्षि कपिलावतार,
८९९ कपिः– सूर्यदेव,
९०० अप्ययः– सम्पूर्ण जगत् के लयस्थान,
९०१ स्वस्तिदः परमानन्दरूप मंगल देनेवाले,
९०२ स्वस्तिकृत्-आश्रितजनोंका कल्याण करनेवाले,
९०३ स्वस्ति– कल्याणस्वरूप,
९०४ स्वस्तिभुक् भक्तोंके परम कल्याणकी रक्षा करनेवाले,
९०५ स्वस्तिदक्षिणः-कल्याण करनेमें समर्थ और शीघ्र कल्याण करनेवाले
रौद्रः कुण्डली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः ।
शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः ।। ११० ।।
९०६ अरौद्रः-सब प्रकारके रुद्र (क्रूर) भावोंसे रहित शान्तिमूर्ति
९०७ कुण्डली -सूर्यके समान प्रकाशमान मकराकृति कुण्डलोंको धारण करनेवाले
९०८ चक्री – सुदर्शनचक्रको धारण करनेवाले
९०९ विक्रमी – सबसे विलक्षण पराक्रमशील
९१० ऊर्जितशासन:- जिनका श्रुति-स्मृतिरूप शासन अत्यन्त श्रेष्ठ है – ऐसे अतिश्रेष्ठ शासन करनेवाले
९११ शब्दातिगः-शब्दकी जहाँ पहुँच नहीं, ऐसे वाणीके अविषय
९१२ शब्दसहः– कठोर शब्दोंको सहन करनेवाले
९१३ शिशिरः – त्रितापपीड़ितोंको शान्ति देनेवाले शीतलमूर्ति
९१४ शर्वरीकरः-ज्ञानियोंकी रात्रि संसार और अज्ञानियोंकी रात्रि ज्ञान- इन दोनोंको उत्पन्न करनेवाले
अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणां वरः ।
विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः ।। १११ ।।
९१५ अक्रूरः – सब प्रकारके क्रूरभावोंसे रहित
९१६ पेशल: – मन, वाणी और कर्म- सभी दृष्टियोंसे सुन्दर होनेके कारण परम सुन्दर
९१७ दक्षः – सब प्रकारसे समृद्ध, परमशक्तिशाली और क्षणमात्रमें बड़े से बड़ा कार्य कर देनेवाले महान् कार्यकुशल
९१८ दक्षिणः – संहारकारी
९९९ क्षमिणां वरः – क्षमा करनेवालोंमें सर्वश्रेष्ठ
९२० विद्वत्तमः – विद्वानोंमें सर्वश्रेष्ठ परम विद्वान्
९२१ वीतभयः – सब प्रकारके भयसे रहित
९२२ पुण्यश्रवणकीर्तनः – जिनके नाम, गुण, महिमा और स्वरूपका श्रवण और कीर्तन परम पावन हैं; ऐसे
उत्तारण दुष्कृतिहा पुण्यो दुःस्वप्ननाशनः ।
वीरहा रक्षणः सन्तो जीवनः पर्यवस्थितः ।। ११२ ।।
९२३ उत्तारणः-संसार-सागरसे पार करनेवाले
९२४ दुष्कृतिहा– पापोंका और पापियोंका नाश करनेवाले
९२५ पुण्यः स्मरण आदि करनेवाले समस्त पुरुषोंको पवित्र कर देनेवाले
९२६ दुःस्वप्ननाशनः ध्यान, स्मरण, कीर्तन और पूजन करनेसे बुरे स्वप्नोंका नाश करनेवाले
९२७ वीरहा – शरणागतोंकी विविध गतियोंका यानी संसार-चक्रका नाश करनेवाले
९२८ रक्षणः – सब प्रकारसे रक्षा करनेवाले
९२९ सन्तः – विद्या, विनय और धर्म आदिका प्रचार करनेके लिये संतोंके रूपमें प्रकट होनेवाले
९३० जीवन:- समस्त प्रजाको प्राणरूपसे जीवित रखनेवाले
९३१ पर्यवस्थितः समस्त विश्वको व्याप्त करके स्थित रहनेवाले
अनन्तरूपोऽनन्तश्रीर्जितमन्युर्भयापहः ।
चतुरस्रो गभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः ।। ११३ ।।
९३२ अनन्तरूपः – अमितरूपवाले,
९३३ अनन्तश्रीः – अपरिमित शोभासम्पन्न,
९३४ जितमन्युः – सब प्रकारसे क्रोधको जीत लेनेवाले,
९३५ भयापहः – भक्तभयहारी,
९३६ चतुरस्रः – मंगलमूर्ति,
९३७ गभीरात्मा – गम्भीर मनवाले,
९३८ विदिशः – अधिकारियोंको उनके कर्मानुसार विभागपूर्वक नाना प्रकारके फल देनेवाले,
९३९ व्यादिशः – सबको यथायोग्य विविध आज्ञा देनेवाले,
९४० दिश: – वेदरूपसे समस्त कर्मोंका फल बतलानेवाले
अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मीः सुवीरो रुचिराङ्गदः ।
जननो जनजन्मादिर्भीमो भीमपराक्रमः ।। ११४ ।।
९४१ अनादिः – जिसका आदि कोई न हो ऐसे सबके कारणस्वरूप
९४२ भूर्भुवः – पृथ्वीके भी आधार
९४३ लक्ष्मीः – समस्त शोभायमान वस्तुओंकी शोभास्वरूप
९४४ सुवीरः – उत्तम योधा
९४५ रुचिराङ्गदः – परम रुचिकर कल्याणमय बाजूबंदोंको धारण करनेवाले
९४६ जननः – प्राणिमात्रको उत्पन्न करनेवाले
९४७ जनजन्मादिः – जन्म लेनेवालोंके जन्मके मूल कारण
९४८ भीमः – दुष्टोंको भय देनेवाले
९४९ भीमपराक्रमः – अतिशय भय उत्पन्न करनेवाले, पराक्रमसे युक्त
आधारनिलयोऽधाता पुष्पहासः प्रजागरः ।
ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः ।। ११५ ॥
९५० आधारनिलयः-आधारस्वरूप पृथ्वी आदि समस्त भूतोंके स्थान,
९५१ अधाता- जिसका कोई भी बनानेवाला न हो ऐसे स्वयं स्थित,
९५२ पुष्पहासः – पुष्पकी भाँति विकसित हास्यवाले,
९५३ प्रजागरः – भली प्रकार जाग्रत् रहनेवाले नित्यप्रबुद्ध,
९५४ ऊर्ध्वगः-सबसे ऊपर रहनेवाले,
९५५ सत्पथाचारः – सत्पुरुषोंके मार्गका आचरण करनेवाले मर्यादापुरुषोत्तम,
९५६ प्राणदः- परीक्षित् आदि मरे हुओंको भी जीवन देनेवाले,
९५७ प्रणवः-ॐकारस्वरूप,
९५८ पणः – यथायोग्य व्यवहार करनेवाले
प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत् प्राणजीवनः ।
तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्युजरातिगः ।। ११६ ।।
९५९ प्रमाणम् – स्वतः सिद्ध होनेसे स्वयं प्रमाणस्वरूप,
९६० प्राणनिलयः प्राणोंके आधारभूत,
९६१ प्राणभृत्-समस्त प्राणोंका पोषण करनेवाले,
९६२ प्राणजीवन:- प्राणवायुके संचारसे प्राणियोंको जीवित रखनेवाले,
९६३ तत्त्वम् – यथार्थ तत्त्वरूप,
९६४ तत्त्ववित्-यथार्थ तत्त्वको पूर्णतया जाननेवाले,
९६५ एकात्मा अद्वितीयस्वरूप,
९६६ जन्ममृत्युजरातिगः-जन्म, मृत्यु और बुढ़ापा आदि शरीरके धर्मोसे सर्वथा अतीत
भूर्भुवःस्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः ।
यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनः ।। ११७ ।।
९६७ भूर्भुवःस्वस्तरुः – भूः भुवः स्वः तीनों लोकोंवाले, संसारवृक्षस्वरूप
९६८ तारः – संसार-सागरसे पार उतारनेवाले
९६९ सविता – सबको उत्पन्न करनेवाले
९७० प्रपितामहः – पितामह ब्रह्माके भी पिता
९७१ यज्ञः – यज्ञस्वरूप
९७२ यज्ञपतिः – समस्त यज्ञोंके अधिष्ठाता
९७३ यज्वा यजमानरूपसे यज्ञ करनेवाले
९७४ यज्ञाङ्गः – समस्त यज्ञरूप अंगोंवाले, वाराहस्वरूप
९७५ यज्ञवाहनः – यज्ञोंको चलानेवाले
यज्ञभृद् यज्ञकृद् यज्ञी यज्ञभुग् यज्ञसाधनः ।
यज्ञान्तकृद् यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च ॥ ११८ ॥
९७६ यज्ञभृत्-यज्ञोंको धारण करनेवाले,
९७७ यज्ञकृत्-यज्ञोंके रचयिता,
९७८ यज्ञी – समस्त यज्ञ जिसमें समाप्त होते हैं – ऐसे यज्ञशेषी,
९७९ यज्ञभुक् – समस्त यज्ञोंके भोक्ता,
९८० यज्ञसाधनः-ब्रह्मयज्ञ, जपयज्ञ आदि बहुत-से यज्ञ जिनकी प्राप्तिके साधन हैं ऐसे,
९८१ यज्ञान्तकृत्-यज्ञोंका फल देनेवाले,
९८२ यज्ञगुह्यम्-यज्ञोंमें गुप्त निष्काम यज्ञस्वरूप,
९८३ अन्नम् – समस्त प्राणियोंके अन्न यानी अन्नकी भाँति उनकी सब प्रकारसे तुष्टि – पुष्टि करनेवाले,
९८४ अन्नादः – समस्त अन्नोंके भोक्ता
आत्मयोनिः स्वयंजातो वैखानः सामगायनः ।
देवकीनन्दनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः ।। ११९ ।।
९८५ आत्मयोनिः– जिनका कारण दूसरा कोई नहीं ऐसे स्वयं योनिस्वरूप,
९८६ स्वयंजातः-स्वयं अपने-आप स्वेच्छापूर्वक प्रकट होनेवाले,
९८७ वैखानः-पातालवासी हिरण्याक्षका वध करनेके लिये पृथ्वीको खोदनेवाले, वाराह अवतारधारी,
९८८ सामगायनः-सामवेदका गान करनेवाले,
९८९ देवकीनन्दनः – देवकीपुत्र,
९९० स्रष्टा- समस्त लोकोंके रचयिता,
९९१ क्षितीशः – पृथ्वीपति,
९९२ पापनाशनः-स्मरण, कीर्तन, पूजन और ध्यान आदि करनेसे समस्त पापसमुदायका नाश करनेवाले
शङ्खभृन्नन्दकी चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः ।। १२० ।।
९९३ शङ्खभृत्-पाञ्चजन्य शंखको धारण करनेवाले
९९४ नन्दकी– नन्दक नामक खड्ग धारण करनेवाले
९९५ चक्री सुदर्शन चक्र धारण करनेवाले
९९६ शार्ङ्गधन्वा – शार्ङ्गधनुषधारी
९९७ गदाधरः– कौमोदकी नामकी गदा धारण करनेवाले
९९८ रथाङ्गपाणिः– भीष्मकी प्रतिज्ञा रखनेके लिये सुदर्शन चक्रको हाथमें धारण करनेवाले श्रीकृष्ण
९९९ अक्षोभ्यः– जो किसी प्रकार भी विचलित नहीं किये जा सके, ऐसे
१००० सर्वप्रहरणायुधः-ज्ञात और अज्ञात जितने भी युद्धादिमें काम आनेवाले अस्त्र-शस्त्र हैं, उन सबको धारण करनेवाले
सर्वप्रहरणायुध ॐ नम इति
The Ultimate Benefits of Vishnu Sahasranamam
Here the last name has been written again to show the end of the thousand names. Omkar has been remembered by being auspicious. In the end, God is worshiped by saluting.
In this way, it has completely described the one thousand divine names of Mahatma Keshav which are worthy of kirtan.
The person who always listens to this Vishnu Sahasranamam and who chants or recites it every day, nothing inauspicious happens to him anywhere in this world or in the next world.
By listening, reading and chanting this Vishnusahasranamam, a Brahmin becomes proficient in Vedanta, a Kshatriya gets victory in the war, a Vaishya gets rich and a Shudra gets happiness.
The one who desires religion gets religion, the one who desires wealth gets wealth, the one who desires pleasures gets pleasures and the one who desires children gets children.
The devout man who always wakes up early in the morning and takes bath and recites this Vasudeva Sahasranamam properly, meditating on Vishnu in his mind, gets great fame, gets importance in the caste, gets immovable property and gets the best welfare and he has no fear. does not happen. He gets semen and radiance and becomes healthy, radiant, strong, beautiful and full of all qualities.
A sick person is freed from the disease, a person in bondage is freed from bondage, the fearful one is freed from fear and the one in trouble is freed from trouble.
The man who, full of devotion, praises the Supreme Lord with this Vishnu Sahasranamam daily, soon overcomes all troubles.
The person who is dependent and loyal to Vasudev, free from all sins and having a pure heart, attains the eternal Supreme Brahma.
Devotees of Vasudev never have any inauspicious events and they have no fear of birth, death, old age or disease.
The man who recites this Vishnu Sahasranamam with devotion and devotion attains self-pleasure, forgiveness, Lakshmi, patience, memory and fame.
The virtuous devotees of Purushottam never get angry, never get jealous, never get greedy and their intellect never becomes impure.
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FAQs Regarding Vishnu Sahasranama
What is Vishnu Sahasranamam?
Vishnu Sahasranamam is a sacred text in Hinduism comprising a thousand names of Lord Vishnu. Each name reflects the qualities and attributes of Lord Vishnu.
Who narrated Vishnu Sahasranamam?
Vishnu Sahasranamam was narrated by Bhishma, the grand patriarch in the epic Mahabharata, to Maharaja Yudhishthir after the war of Mahabharata.
What are the benefits of reciting Vishnu Sahasranamam?
Reciting Vishnu Sahasranamam is believed to bring various benefits, including protection from inauspicious events, attainment of wealth, happiness, and children, depending on the individual’s desires. It also grants fame, health, strength, and liberation from fears, diseases, and troubles.
How should one recite Vishnu Sahasranamam?
It is recommended to recite Vishnu Sahasranamam early in the morning after taking a bath. Devotees should meditate on Vishnu and recite it with devotion and purity of heart. Read more about chanting tips on reciting Vishnu Sahasranamam.
Can Vishnu Sahasranamam cure diseases and troubles?
It is believed that reciting Vishnu Sahasranamam with devotion can help a person overcome diseases, fears, bondage, and troubles. You can recite this 10 powerful names from Vishnu Sahasranamam.
What is the significance of the last name in Vishnu Sahasranamam?
The last name in Vishnu Sahasranamam is repeated to indicate the end of the thousand names, and it concludes with the remembrance of Omkar and worship of God with salutations.
Who can benefit from Vishnu Sahasranamam?
People from all walks of life can benefit from Vishnu Sahasranamam. It is said to aid Brahmins in mastering Vedanta, Kshatriyas in gaining victory, Vaishyas in acquiring wealth, and Shudras in achieving happiness.
What does one attain by being devoted to Vasudev?
A person devoted to Vasudev, with a pure heart and free from sins, is believed to attain the eternal Supreme Brahma and be free from the fear of birth, death, old age, and disease.
How does Vishnu Sahasranamam affect one’s qualities and virtues?
Regular recitation of Vishnu Sahasranamam is said to instill qualities like self-contentment, forgiveness, patience, memory, fame, and a lack of anger, jealousy, and greed.
What is the historical context of Vishnu Sahasranamam?
Vishnu Sahasranamam was narrated in the context of the aftermath of the Mahabharata war, where Bhishma imparts this spiritual knowledge to Yudhishthir.
Purnahuti
Dear friends, in this article we have told you everything directly based on the original Mahabharata. For your convenience, we have also given the option of videos and music in this article so that you can listen as well as sing along.
On vrindavanrasamrit.in, we have explained in detail the main seven songs of Bhagwat (Gopi Geet, Bhramar Geet, Yugal Geet, Aila Geet, Venu Geet, Bhikshu Geet, Rudra Geet) which are full of supreme esoteric knowledge.
On this website, we have also given answers to many questions related to Shri Krishna, which you can read by clicking here and get answers to your questions related to Shri Krishna.
And if you want to know more about Vishnu Sahasranamam, then we have created a separate category on it so that the information can be easily delivered to you.
And with this I end my speech. I pray to God that this series of articles continues and that you also continue to be on the right path in your material and spiritual life by consuming such devotional content.
देखना इन्द्रियों के न घोड़े भगे , इनपे हरदम ही संयम के कोड़े पड़ें
अपने रथ को सुमार्ग लगाते चलो, श्री कृष्ण गोविन्द गोपाल गाते चलो |